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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] बंध-अधिकार १४९ ऐसा कोई कहता है सो झूठा है। कारण कि "द्वयं किमु न हि विरुध्यते'' [द्वयं ] ज्ञाता भी वांछक भी ऐसी दो क्रिया [ किमु न हि विरुध्यते] विरुद्ध नहीं क्या ? अपितु सर्वथा विरुद्ध है।। ४–१६६ ।। [वसन्ततिलका] जानाति यः स न करोति करोति यस्तु जानात्ययं न खलु तत्किल कर्म रागः। रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिथ्यादृशः स नियतं स च बन्धहेतुः।। ५-१६७।। [हरिगीत जो ज्ञानीजन हैं जानते वे कभी भी करते नहीं। करना तो है बस राग ही जो करे वे जाने नहीं।। अज्ञानमय यह राग तो है भाव अध्यवसान ही। बन्धकारण कहे ये अज्ञानियों के भाव ही।।१६७।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "य: जानाति सः न करोति'' [ यः] जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव [जानाति] शुद्ध स्वरूपको अनुभवता है [ सः] वह सम्यग्दृष्टि जीव [ न करोति] कर्मकी उदय सामग्रीमें अभिलाषा नहीं करता। "तु यः करोति अयं न जानाति'' [तु] और [य:] जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव [ करोति] कर्मकी विचित्र सामग्रीको आपरूप जानकर अभिलाषा करता है [अयं] वह मिथ्यादष्टि जीव [ न जानाति ] शद्धस्वरूप जीवको नहीं जानता है। भावार्थ इस प्रकार है कि मिथ्यादष्टि जीवको जीवके स्वरूपका जानपना नहीं घटित होता। 'खल' ऐसा वस्तका निश्चय है। ऐसा कहा जो मिथ्यादृष्टि कर्ता है वहाँ करना सो क्या ? "तत् कर्म किल रागः''[तत् कर्म] कर्मके उदयसामग्रीका करना वह [किल] वास्तवमें [ राग:] कर्म सामग्रीमें अभिलाषारूप चिकना परिणाम है। कोई मानेगा कि कर्मसामग्रीमें अभिलाषा हुई तो क्या न हुई तो क्या ? सो ऐसा तो नहीं है, अभिलाषामात्र पूरा मिथ्यात्वपरिणाम है ऐसा कहते हैं - "तु रागं अबोधमयम् अध्यवसायम् आहुः'' [तु] वह वस्तु ऐसी है कि [ रागं अबोधमयम् अध्यवसायम्] परद्रव्य सामग्रीमें है जो अभिलाषा वह केवल मिथ्यात्वरूप परिणाम है ऐसा [ आहुः] गणधरदेवने कहा है। “सः नियतं मिथ्यादृशः भवेत्' [ सः] कर्मकी सामग्रीमें राग [ नियतं] अवश्यकर [ मिथ्यादृशः भवेत् ] मिथ्यादृष्टि जीवके होता है। सम्यग्दृष्टि जीवके निश्चयसे नहीं होता। "सः च बन्धहेतुः'' वह रागपरिणाम कर्मबंधका कारण है। इसलिए भावार्थ ऐसा है कि मिथ्यादृष्टि जीव कर्मबन्ध करता है, सम्यग्दृष्टि जीव नहीं करता।। ५१६७।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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