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कहान जैन शास्त्रमाला]
निर्जरा-अधिकार
१३३
[शार्दूलविक्रीडित] ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किञ्चित्तथाप्युच्यते भुंक्षे हन्त न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः। बन्धः स्यादुपभोगतो यदि न तत्किं कामचारोऽस्ति ते ज्ञानं सन्वस बन्धमेष्यपरथा स्वस्यापराधाधुवम्।।१९-१५१ ।।
[हरिगीत कर्म करना ज्ञानियों को उचित हो सकता नहीं। फिर भी भोगासक्त जो दुर्भुक्त ही वे जानिये ।। हो भोगनेसे बन्ध ना पर भोगने के भाव से । तो बन्ध है बस इसलिए निज आत्मा में रत रहो।।१५१ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "ज्ञानिन् जातु कर्म कर्तुम् न उचितं'' [ ज्ञानिन् ] हे सम्यग्दृष्टि जीव ! [ जातु] किसी प्रकार कभी भी [ कर्म] ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गलपिण्ड [ कर्तुम् ] बाँधनेको [न उचितं] योग्य नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवके कर्मका बन्ध नहीं है। "तथापि किञ्चित् उच्यते'' [ तथापि] तो भी [ किञ्चित् उच्यते] कुछ विशेष है वह कहते हैं-'हन्त यदि मे परं न जातु भुंक्षे भोः दुर्भुक्तः एव असि'' [हन्त] कड़क वचनके द्वारा कहते हैं। [यदि] जो ऐसा जानकर भोगसामग्री भोगता है कि [ मे] मेरे [ परं न जातु] कर्मका बंध नहीं है। ऐसा जानकर [ भुंक्षे] पंचेन्द्रियविषय भोगता है तो [ भोः] अहो जीव ! [ दुर्भुक्तः एव असि] ऐसा जानकर भोगोंका भोगना अच्छा नहीं। कारण कि वस्तुस्वरूप इस प्रकार है-'यदि उपभोगतः बन्धः न स्यात् तत् ते किं कामचारः अस्ति'' [ यदि] जो ऐसा है कि [ उपभोगतः] भोगसामग्रीको भोगते हुए [बन्धः न स्यात्] ज्ञानावरणादि कर्मका बन्ध नहीं है [तत्] तो [ते] अहो सम्यग्दृष्टि जीव! तेरे [ कामचार:] स्वेच्छा आचरण [ किं अस्ति] क्या ऐसा है अपितु ऐसा तो नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवके कर्मका बंध नहीं है। कारण कि सम्यग्दृष्टि जीव राग द्वेष मोहसे रहित है। वही सम्यग्दृष्टि जीव, यदि सम्यक्त्व छूटे मिथ्यात्वरूप परिणमे तो, ज्ञानावरणादि कर्मबंधको अवश्य करे, क्योंकि मिथ्यादृष्टि होता हुआ राग द्वेष मोहरूप परिणमता है ऐसा कहते हैं – 'ज्ञानं सन् वस'' सम्यग्दृष्टि होता हुआ जितने काल प्रवर्तता उतने काल बंध नहीं है ''अपरथा स्वस्य अपराधात् बन्धम् ध्रुवम् एषि'' [ अपरथा] मिथ्यादृष्टि होता हुआ [ स्वस्य अपराधात् ] अपने ही दोषसे-रागादि अशुद्धरूप परिणमनके कारण [बन्धम् ध्रुवम् एषि] ज्ञानावरणादि कर्मबंधको तू ही अवश्य करता है ।। १९-१५१।।
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