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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
भावार्थ इस प्रकार है -सम्यग्दृष्टि जीवको विषयसामग्री भोगते हुए बंध नहीं है, निर्जरा है। कारण कि सम्यग्दृष्टि जीव सर्वथा अवश्यकर परिणामोंसे शुद्ध है। ऐसा ही वस्तुका स्वरूप है। परिणामोंकी शुद्धता रहते हुए बाह्यभोगसामग्रीके द्वारा बन्ध किया नहीं जाता। ऐसा वस्तुका स्वरूप है। यहाँ कोई आशंका करता है कि सम्यग्दृष्टि जीव भोग भोगता है सो भोग भोगते हुए रागरूप अशुद्ध परिणाम होता होगा सो उस रागपरिणामके द्वारा बन्ध होता होगा सो ऐसा तो नहीं। कारण कि वस्तुका स्वरूप ऐसा है जो शुद्ध ज्ञान होनेपर भोगसामग्रीको भोगते हुए सामग्रीके द्वारा अशुद्धरूप किया नहीं जाता। कितनी ही भोगसामग्री भोगो तथापि शुद्धज्ञान अपने स्वरूप-शुद्ध ज्ञानस्वरूप रहता है। वस्तुका ऐसा सहज है। ऐसा कहते हैं –ज्ञानं कदाचनापि अज्ञानं न भवेत्' [ ज्ञानं] शुद्ध स्वभावरूप परिणमा है आत्मद्रव्य, वह [कदाचन अपि] अनेक प्रकार भोगसामग्रीको भोगता हुआ अतीत, अनागत, वर्तमान कालमें [ अज्ञानं] विभाव अशुद्ध रागादिरूप [ न भवेत् ] नहीं होता। कैसा है ज्ञान ? "सन्ततं भवत्'' शाश्वत शुद्धत्वरूप जीवद्रव्य परिणमा है, मायाजालके समान क्षण विनश्वर नहीं है। आगे दृष्टान्तके द्वारा वस्तुका स्वरूप साधते हैं – “हि यस्य वशतः यः यादृक् स्वभावः तस्य तादृक् इह अस्ति'' [हि] जिस कारणसे [यस्य] जिस किसी वस्तुका [ यः यादृक् स्वभावः] जो स्वभाव जैसा स्वभाव है वह [वशतः] अनादि-निधन है [तस्य] उस वस्तुका [तादृक् इह अस्ति] वैसा ही है। जिस प्रकार शंखका श्वेत स्वभाव है, श्वेत प्रगट है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टिका शुद्ध परिणाम होता हुआ शुद्ध है। "एष: परैः कथञ्चन अपि अन्यादृशः कर्तुं न शक्यते'' [ एषः] वस्तुका स्वभाव [परैः] अन्य वस्तुके किये [कथञ्चन अपि] किसी प्रकार [अन्यादृशः] दूसरेरूप [ कर्तुं] करनेको [न शक्यते] नहीं समर्थ है। भावार्थ इस प्रकार है कि स्वभावसे श्वेत शंख है सो शंख काली मिट्टी खाता है, पीली मिट्टी खाता है, नाना वर्ण मिट्टी खाता है। ऐसी मिट्टी खाता हुआ शंख उस मिट्टीके रंगका नहीं होता है, अपने श्वेत रूप रहता है। वस्तुका ऐसा ही सहज है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव स्वभावसे राग द्वेष मोहसे रहित शुद्ध परिणामरूप है, वह जीव नाना प्रकार भोगसामग्री भोगता है तथापि अपने शुद्धपरिणामरूप परिणमता है। सामग्रीके रहते हुए अशुद्धरूप परिणमाया जाता नहीं ऐसा वस्तुका स्वभाव है, इसलिए सम्यग्दृष्टिके कर्मका बन्ध नहीं है, निर्जरा है।। १८-१५० ।।
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