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________________ १३४ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार - कलश [ शार्दूलविक्रीडित ] कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कर्मैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः । ज्ञानं संस्तदपास्तरागरचनो नो बध्यते कर्मणा कुर्वाणोऽपि हि कर्म तत्फलपरित्यागैकशीलो मुनिः।। २०-९५२।। [ हरिगीत ] तू भोग मुझको ना कहे यह कर्म निज करतार को । फलाभिलाषी जीव ही नित कर्मफल को भोगता ।। फलाभिलाषा विरत मुनिजन ज्ञानमय वर्तन करें। सब कर्म करते हुए भी वे कर्म बन्धन ना करें। । १५२ ।। [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - खंडान्वय सहित अर्थ:- '' तत् मुनिः कर्मणा नो बध्यते ' [ तत् ] तिस कारणसे [ मुनि: ] शुद्धस्वरूप अनुभव बिराजमान सम्यग्दृष्टि जीव [ कर्मणा ] ज्ञानावरणादि कर्मसे [ नो बध्यते ] नहीं बँधता है। कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? " हि कर्म कुर्वाणः अपि ' ' [हि ] निश्चयसे [ कर्म ] कर्मजनित विषयसामग्री भोगरूप क्रियाको [ कुर्वाणः अपि ] करता है-यद्यपि भोगता है तो भी ‘तत्फलपरित्यागैकशील: '' [ तत्फल ] कर्मजनित सामग्रीमें आत्मबुद्धि जानकर रंजक परिणामका [ परित्याग ] सर्वथा प्रकार स्वीकार छूट गया ऐसा है [ एक ] सुखरूप [ शील: ] स्वभाव जिसका, ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है कि सम्यग्दृष्टि जीवके विभावरूप मिथ्यात्वपरिणाम मिट गया है, उसके मिटनेसे अनाकुलत्वलक्षण अतीन्द्रिय सुख अनुभवगोचर हुआ है। और कैसा है ? " ज्ञानं सन् तदपास्तरागरचन: '' ज्ञानमय होते हुए दूर किया है रागभाव जिसमेंसे ऐसा है। इस कारण कर्मजनित है जो चार गतिकी पर्याय तथा पंचेन्द्रियोंके भोग वे समस्त आकुलतालक्षण दुःखरूप हैं । सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा ही अनुभव करता है। इस कारण जितना कुछ साता - असातारूप कर्मका उदय, उससे जो कुछ इष्ट विषयरूप अथवा अनिष्ट विषयरूप सामग्री सो सम्यग्दृष्टिके सर्व अनिष्टरूप है। इसलिए जिस प्रकार किसी जीवके अशुभ कर्मके उदय रोग, शोक, दारिद्र आदि होता है, उसे जीव छोड़नेको बहुतही करता है, परंतु अशुभ कर्मके उदय नहीं छूटता है, इसलिए भोगना ही पड़े। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीवके, पूर्वमें अज्ञान परिणामके द्वारा बांधा है जो सातारूप असातारूप कर्म उसके उदय अनेक प्रकार विषयसामग्री होती है, उसे सम्यग्दृष्टि जीव दुःखरूप अनुभवता है, छोड़ने को बहुतही करता है। परंतु जब तक क्षपकश्रेणी चढ़े तब तक छूटना अशक्य है, इसलिए परवश हुआ भोगता है। हृदयमें अत्यंत विरक्त है, इसलिए अरंजक है, इसलिए भोग सामग्री को भोगते हुए कर्मका बन्ध नहीं है, निर्जरा है। यहाँ दृष्टान्त कहते है - ' ' यत् किल कर्म कर्तारं स्वफलेन बलात् योजयेत्'' [ यत्] जिस कारणसे ऐसा है । [ किल ] ऐसा ही है, संदेह नहीं कि [ कर्म ] राजाकी सेवा आदिसे लेकर जितनी कर्मभूमिसम्बन्धी क्रिया [ कर्तारं ] क्रियामें रंजक होकर - तन्मय होकर करता है जो कोई पुरुष, Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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