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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] निर्जरा-अधिकार १२९ [स्वागता] वेद्यवेदकविभावचलत्वाद् वेद्यते न खलु कांक्षितमेव। तेन कांक्षति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपैति।।१५-१४७।। [हरिगीत] हम जिन्हें चाहें अरे उनका भोग हो सकता नहीं। क्योंकि पलपल प्रलय पावें वेद्य-वेदक भाव सब।। बस इसलिये सबके प्रति अति ही विरक्त रहें सदा। चाहें न कुछ भी जगत में निजतत्वविद विद्वानजन।।१४७।। खंडान्वय सहित अर्थः- "तेन विद्वान् किञ्चन न कांक्षति'' [ तेन ] तिस कारणसे [ विद्वान् ] सम्यग्दृष्टि जीव [ किञ्चन] कर्मका उदय करता है नाना प्रकारकी सामग्री उसमेंसे कोई सामग्री [ न कांक्षति] कर्मकी सामग्रीमें कोई सामग्री जीवको सुखका कारण ऐसा नहीं मानता है, सर्व सामग्री दुःखका कारण ऐसा मानता है। और कैसा है सम्यग्दृष्टि जीव ? ''सर्वतः अतिविरक्तिम् उपैति'' [ सर्वतः] जितनी कर्मजनित सामग्री है उससे मन, वचन, काय त्रिशुद्धि के द्वारा [ अतिविरक्तिम्] सर्वथा त्यागरूप [ उपैति] परिणमता है। किस कारणसे ऐसा है ? ''यतः खलु कांक्षितम् न वेद्यते एव' [यतः] जिस कारणसे [खलु ] निश्चयसे [कांक्षितम्] जो कुछ चितवन किया है वह [न वेद्यते] नहीं प्राप्त होता है। [ एव] ऐसा ही है। किस कारणसे ? ' 'वेद्यवेदकविभावचलत्वात्'' [ वेद्य ] वांछी [इच्छी] जाती है जो वस्तुसामग्री, [ वेदक ] वांछारूप जीवका अशुद्ध परिणाम, ऐसे हैं [विभाव] दोनों अशुद्ध विनश्वर कर्मजनित, इस कारणसे [चलत्वात् ] क्षण प्रति क्षण प्रति औरसा होते है। कोई अन्य चिन्ता जाता है, कुछ अन्य होता है। भावार्थ इस प्रकार है कि अशुद्ध रागादि परिणाम तथा विषयसामग्री दोनों समय समय प्रति विनश्वर हैं, इसलिए जीवका स्वरूप नहीं। इस कारण सम्यग्दृष्टिके ऐसे भावोंका सर्वथा त्याग है। इसलिए सम्यग्दृष्टिको बंध नहीं है, निर्जरा है।। १५-१४७।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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