SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३० समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द [स्वागता] ज्ञानिनो न हि परिग्रहभावं कर्म रागरसरिक्ततयैति। रङ्गयुक्तिरकषायितवस्त्रे स्वीकृतैव हि बहिर्जुठतीह।। १६-१४८।। _ [हरिगीत] जबतक कषायित नकरें सर्वांग फिटकरी आदिसे। तबतलक सूती वस्त्र पर सर्वांग रंग चढ़ता नहीं।। बस उसतरह ही रागरस से रिक्त सम्यक्ज्ञानिजन। सब कर्म करते पर परीग्रहभाव को ना प्राप्त हो।।१४८।। खंडान्वय सहित अर्थ:- "कर्म ज्ञानिनः परिग्रहभावं न हि एति'' [कर्म] जितनी विषयसामग्री भोगरूप क्रिया है वह [ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवके [ परिग्रहभावं] ममतारूप स्वीकारपने को [न हि एति] निश्चयसे नहीं प्राप्त होती है। किस कारणसे ? " रागरसरिक्ततया' [ राग] कर्मकी सामग्रीको आपा जानकर रंजक परिणाम ऐसा जो [ रस] वेग , उससे [ रिक्ततया] रीता है, ऐसा भाव होने से। दृष्टान्त कहते हैं- "हि इह अकषायितवस्त्रे रङ्गयुक्तिः बहिः लुठति एव" [हि] जैसे [इह] सब लोकमें प्रगट है कि [अकषायित] नहीं लगा है हरडा फिटकरी लोद जिसको ऐसे [ वस्त्रे ] कपड़ामें [ रङ्गयुक्तिः] मजीठके रंगका संयोग किया जाता है तथापि [ बहि: लुठति] कपड़ासे नहीं लगता है, बाहर बाहर फिरता है उस प्रकार। भावार्थ ऐसा है कि सम्यग्दृष्टि जीवके पंचेन्द्रिय विषयसामग्री है, भोगता भी है। परंतु अंतरंग राग द्वेष मोहभाव नहीं है, इस कारण कर्मका बंध नहीं है, निर्जरा है। कैसी है रंगयुक्ति ? ''स्वीकृता'' कपड़ा रंग इकट्ठा किया है।। १६-१४८।। [स्वागता] ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यत: स्यात् सर्वरागरसवर्जनशीलः। लिप्यते सकलकर्मभिरेष: कर्ममध्यपतितोऽपि ततो न।।१७-१४९ ।। [हरिगीत] रागरस से रहित ज्ञानी जीव इस भूलोक में। कर्मस्थ हों पर कर्मरज से लिप्त होते हैं नहीं।।१४९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy