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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[स्वागता] पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात् ज्ञानिनो यदि भवत्युपभोगः। तद्भवत्वथ च रागवियोगात् नूनमेति न परिग्रहभावम्।।१४-१४६ ।।
[दोहा] होंय कर्म के उदय से, ज्ञानी के जो भोग। परिग्रहत्व पावे नहीं, क्योंकि रागवियोग।।१४६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "यदि ज्ञानिनः उपभोगः भवति तत् भवतु'' [ यदि] जो कदाचित् [ ज्ञानिनः] सम्यग्दृष्टि जीवके [ उपभोगः] शरीर आदि संपूर्ण भोगसामग्री [ भवति] सम्यग्दृष्टि जीव भोगता है, [तत्] तो [भवतु] सामग्री होवे। सामग्रीका भोग भी होवे। "नूनम् परिग्रहभावम् न एति'' [ नूनम्] निश्चयसे [ परिग्रहभावम्] विषय -सामग्रीकी स्वीकारता ऐसे अभिप्रायको [न एति] नहीं प्राप्त होता है। किस कारणसे ? ''अथ च रागवियोगात्'' [अथ च] वहाँसे लेकर सम्यग्दृष्टि हुआ, [ रागवियोगात्] वहाँसे लेकर विषयसामग्रीमें राग, द्वेष, मोहसे रहित हुआ, इस कारणसे। कोई प्रश्न करता है कि ऐसे विरागीके-सम्यग्दृष्टि जीवके विषयसामग्री क्यों होती है ? उत्तर इस प्रकार है-''पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकात्'' [पूर्वबद्ध] सम्यक्त्व उत्पन्न होनेके पहले मिथ्यादृष्टि जीव था, रागी था, वहाँ रागभावके द्वारा बाँधा था जो [ निजकर्म] अपने प्रदेशोंमें ज्ञानावरणादिरूप कार्मणवर्गणा उसके [ विपाकात्] उदयसे। भावार्थ इस प्रकार है कि राग द्वेष मोह परिणामके मिटनेपर पर द्रव्यरूप बाह्य सामग्रीका भोग बंधका कारण नहीं है, निर्जराका कारण है, इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव अनेक प्रकारकी विषयसामग्री भोगता है परंतु रंजक परिणाम नहीं है, इसलिए बंध नहीं है, पूर्व में बाँधा था जो कर्म उसकी निर्जरा है।। १४-१४६ ।।
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