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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
असाताकर्मके उदयके संयोग होते हैं जो सुख-दुःख सो जीवका स्वरूप नहीं है, कर्मकी उपाधि हैं। और कैसा है ? ''यत्पुर: अन्यानि पदानि अपदानि एव भासन्ते'' [ यत्पुरः] जिस शुद्धस्वरूपका अनुभवरूप आस्वाद आनेपर [अन्यानि पदानि ] चार गतिकी पर्याय, राग, द्वेष, मोह, सुख-दुःखरूप इत्यादि जितने अवस्थाभेद हैं वे [ अपदानि एव भासन्ते] जीवका स्वरूप नहीं हैं, उपाधिरूप हैं, विनश्वर हैं, दुःखरूप हैं, ऐसा स्वाद स्वानुभवप्रत्यक्षरूपसे आता है। भावार्थ इस प्रकार है - शुद्ध चिद्रूप उपादेय, अन्य समस्त हेय।। ७–१३९ ।।
[शार्दूलविक्रीडित] एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन् स्वादं द्वन्द्वमयं विधातुमसहः स्वां वस्तुवृत्तिं विदन्। आत्मात्मानुभवानुभावविवशो भ्रश्यद्विशेषोदयं सामान्यं कलयन किलैष सकलं ज्ञानं नयत्येकताम्।। ८-१४०।।
[हरिगीत] उस ज्ञानके आस्वाद में ही नित रमे जो आतमा। अर द्वन्दमय आस्वाद में असमर्थ है जो आतमा।। आत्मानुभव के स्वाद में ही मगन है जो आतमा। सामान्य में एकत्व को धारण करे वह आतमा।।१४०।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''एषः आत्मा सकलं ज्ञानं एकताम् नयति'' [ एष: आत्मा] वस्तुरूप विद्यमान चेतनद्रव्य [ सकलं ज्ञानं] जितनी पर्यायरूप परिणमा है ज्ञान-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि अनेक विकल्परूप परिणमा है ज्ञान, उसको [ एकताम्] निर्विकल्परूप [नयति] अनुभवता है। भावार्थ इस प्रकार है - जिस प्रकार उष्णतामात्र अग्नि है, इसलिए दाह्यवस्तुको जलाती हुई दाह्यके आकार परिणमती है, इसलिए लोगोंको ऐसी बुद्धि ऊपजती है कि काष्ठकी अग्नि, छानाकी अग्नि, तृणकी अग्नि। सो ये समस्त विकल्प झूठे हैं। अग्निके स्वरूपका विचार करनेपर उष्णतामात्र अग्नि है, एकरूप है। काष्ठ, छाना, तृण अग्निका स्वरूप नहीं है उसी प्रकार ज्ञान चेतनाप्रकाशमात्र है, समस्त ज्ञेयवस्तुको जाननेका स्वभाव है, इसलिए समस्त ज्ञेयवस्तुको जानता है, जानता हुआ ज्ञेयाकार परिणमता है। इससे ज्ञानी जीवको ऐसी बुद्धि उपजती है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान ऐसे भेद विकल्प सब झूठे हैं। ज्ञेयकी उपाधिसे मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय, केवल ऐसे विकल्प ऊपजे हैं। कारण कि ज्ञेयवस्तु नाना प्रकार है। जैसे ही ज्ञेयका ज्ञायक होता है वैसा ही नाम पाता है, वस्तुस्वरूपका विचार करनेपर ज्ञानमात्र है। नाम धरना सब झूठा हैं। ऐसा अनुभव शुद्ध स्वरूपका अनुभव है। “किल' निश्चयसे ऐसा ही है। कैसा है अनुभवशीली आत्मा ? ''एकज्ञायकभावनिर्भरमहास्वादं समासादयन्'' [ एक] निर्विकल्प ऐसा जो [ ज्ञायकभाव ] चेतनद्रव्य, उसमें [निर्भर] अत्यंत मग्नपना, उससे हुआ है [ महास्वादं] अनाकुललक्षण सौख्य, उसको [ समासादयन् ] आस्वादता हुआ।
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