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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला ] निर्जरा- अधिकार " [तत्] कर्मके उदयसे है जो चार गतिरूप पर्याय तथा रागादि अशुद्ध परिणाम तथा इन्द्रियविषयजनित सुख - दुःख इत्यादि अनेक हैं वह [ अपदम् अपदं ] जितना कुछ है कर्म संयोग की उपाधि है, दो बार कहने पर सर्वथा जीवका स्वरूप नहीं है, [ विबुध्यध्वम् ] ऐसा अवश्य कर जानो। कैसा है मायाजाल ? ' यस्मिन् अमी रागिण: आसंसारात् सुप्ता:'' [ यस्मिन् ] जिसमें - कर्मका उदयजनित अशुद्ध पर्यायमें [अमी रागिण: ] प्रत्यक्षरूपसे विद्यमान हैं जो पर्यायमात्र में राग करने वाले जीव वे [आसंसारात् सुप्ता: ] अनादि कालसे लेकर सोए है अर्थात् अनादि कालसे उसरूप अपने को अनुभवते हैं । भावार्थ इस प्रकार है अनादि कालसे लेकर ऐसे स्वादको सर्व मिथ्यादृष्टि जीव आस्वादते हैं कि 'मैं देव हूँ, मनुष्य हूँ, सुखी हूँ, दुःखी हूँ, ऐसा पर्यायमात्रको आपा अनुभवते हैं, इसलिए सर्व जीवराशि जैसा अनुभवती है सो सर्व झूठा है, जीवका तो स्वरूप नहीं है। कैसी है सर्व जीवराशि ? " प्रतिपदम् नित्यमत्ता: [ प्रतिपदम् ] जैसी पर्याय ली उसीरूप [नित्यमत्ताः] ऐसे मतवाले हुए कि कोई काल कोई उपाय करनेपर मतवालापन उतरता नहीं । शुद्ध चैतन्यस्वरूप जैसा है वैसा दिखलाते हैं -' इतः एत एत' पर्यायमात्र अवधारा है आपा, ऐसे मार्ग मत जाओ, मत जाओ, क्योंकि [ वह ] तेरा मार्ग नहीं है, नहीं है। इस मार्ग पर आओ, अरे ! आओ, क्योंकि— — इदम् पदम् इदं पदं " तेरा मार्ग यहाँ है, यहाँ है। ‘— यत्र चैतन्यधातु:'' [ यत्र ] जिसमें [ चैतन्यधातुः ] चेतनामात्र वस्तुका स्वरूप है। कैसा है ?" 'शुद्धः शुद्धः" सर्वथा प्रकार सर्व उपाधिसे रहित है। 'शुद्ध शुद्ध' दो बार कहकर अत्यंत गाढ़ किया है। और कैसा है ? " स्थायिभावत्वम् एति" अविनश्वर भावको पाता । किस कारणसे ? ' स्वरसभरत: ' ' [ स्वरस ] चेतनास्वरूप उसके [ भरत: ] भारसे अर्थात् कहनामात्र नहीं है, सत्यस्वरूप वस्तु है, इसलिए नित्य शाश्वत है। भावार्थ इस प्रकार है जिसको पर्यायको मिथ्यादृष्टि जीव आपाकर जानता है वे तो सर्व विनाशीक हैं, इसलिए जीवका स्वरूप नहीं हैं। चेतनामात्र अविनाशी है, इसलिए जीवका स्वरूप है ।। ६-१३८ ।। [ अनुष्टुप् ] एकमेव हि तत्स्वाद्यं विपदामपदं पदम्। अपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ।। ७-१३९।। 33 [ हरिगीत ] अरे जिसके सामने हों सभी पद भासित अपद । सब अपदाओं से रहित आराध्य है वह ज्ञान पद ।। १३९ ।। "" खंडान्वय सहित अर्थ:- 'तत् पदम् स्वाद्यं '' [ तत् ] शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तुरूप [ पदम् ] मोक्षका कारण [ स्वाद्यं ] निरंतर अनुभव करना । कैसा है ? ‘" हि एकम् एव [हि ] निश्चयसे [ एकम् एव ] समस्त भेद विकल्पसे रहित निर्विकल्प वस्तुमात्र है । और कैसा है ? '' विपदाम् अपदं [विपदाम् ] चतुर्गति संसार संबंधी नाना प्रकारके दुःखोंका [ अपदं ] अभावलक्षण भावार्थ इस प्रकार है है। आत्मा सुखस्वरूप है । साता Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com - 35 १२१
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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