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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
किस कारणसे ऐसे है ? "यतः सम्यक्त्वरिक्ताः सन्ति''[यतः ] जिस कारणसे विषयसुख रंजक हैं जितनी जीवराशि वे, [ सम्यक्त्वरिक्ताः सन्ति] शुद्धात्मस्वरूपके अनुभवसे शून्य हैं। किस कारणसे ? "आत्मानात्मावगमविरहात्'' [आत्मा ] शुद्ध चैतन्य वस्तु, [अनात्मा] द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म, उनका [अवगम] हेयउपादेयरूप भिन्नपनेरूप जानपना, उसका [विरहात्] शून्यपना होनेसे। भावार्थ इस प्रकार है – मिथ्यादृष्टि जीवके शुद्ध वस्तुके अनुभवकी शक्ति नहीं होती ऐसा नियम है, इसलिये मिथ्यादृष्टि जीव कर्मका उदय आया जानकर अनुभवता है, पर्यायमात्रमें अत्यंत रत है। इस कारण मिथ्यादृष्टि सर्वथा रागी है। रागी होनसे कर्मबंध कर्ता है। कैसा है मिथ्यादृष्टि जीव ? ''अयम् अहं स्वयम् सम्यग्दृष्टि: जातु मे बन्धः न स्यात्'' [अयम् अहं] यह जो हूँ मैं, [ स्वयम् सम्यग्दृष्टि:] स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ, इस कारण [ जातु] त्रिकाल ही [ मे बन्धः न स्यात् ] अनेक प्रकारका विषयसुख भोगते हुए भी हमें तो कर्मका बंध नहीं है। 'इति आचरन्तु'' ऐसे जीव ऐसा मानते हैं तो मानो तथापि उनके कर्मबंध हैं। और कैसे हैं ? " उत्तानोत्पुलकवदनाः'' [ उत्तान] ऊँचा कर [ उत्पुलक] फुलाया है [ वदनाः] गाल-मुख जिन्होंने, ऐसे हैं। "अपि'' अथवा कैसे हैं ? 'समितिपरतां आलम्बन्तां'' [ समिति] मौनपना अथवा थोड़ा बोलना अथवा अपने को हीना करके बोलना, इनका [ परतां] समानरूप सावधानपना, उसको [आलम्बन्तां] अवलंबन करते हैं अर्थात् सर्वथा प्रकार इस रूप प्रकृतिका स्वभाव है जिनका, ऐसे हैं। तथापि रागी होनेसे मिथ्यादृष्टि हैं, कर्मका बंध करते हैं। भावार्थ इस प्रकार है - जो कोई जीव पर्यायमात्रमें रत होते हुए प्रगट मिथ्यादृष्टि हैं उनकी प्रकृतिका स्वभाव है कि 'हम सम्यग्दृष्टि, हमें कर्मका बंध नहीं' ऐसा मुखसे गरजते हैं, कितने ही प्रकृतिके स्वभावके कारण मौन-सा रहते हैं, कितने थोड़ा बोलते हैं। सो ऐसा होकर रहते हैं सो यह समस्त प्रकृतिका स्वभावभेद है। इसमें परमार्थ तो कुछ नहीं। जितने काल तक जीव पर्यायमें आपापन अनुभवता है उतने काल तक मिथ्यादृष्टि है, रागी है, कर्मका बंध करता है।। ५-१३७ ।।
[ मंदाक्रान्ता] आसंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ता: सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः। एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः। शुद्धः शुद्धः स्वरसभरतः स्थायिभावत्वमेति।।६-१३८ ।।
[हरिगीत] अपदपद में मत्त नित अन्धे जगत के प्राणियों । यह पद तुम्हारा पद नहीं निज जानकर क्यों सो रहे।। जागो इधर आओ रहो नित मगन परमानन्द में। हो परमपदमय तुम स्वयं तुम स्वयं हो चैतन्यमय।।१३८ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "भो अन्धाः '' [ भो] सम्बोधन वचन, [अन्धाः] शुद्ध स्वरूपके अनुभवसे शून्य है जितनी जीवराशि। “तत् अपदम् अपदं विबुध्यध्वम्''
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