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कहान जैन शास्त्रमाला]
निर्जरा-अधिकार
स्वस्मिन् आस्ते परात् सर्वतः रागयोगात् विरमति'' [ यस्मात् ] जिस कारण [अयं] सम्यग्दृष्टि [स्वस्मिन् आस्ते] सहज ही शुद्धस्वरूपमें अनुभवरूप होता है तथा [परात् रागयोगात्] पुद्गलद्रव्यकी उपाधिसे है जितनी रागादि अशुद्ध परिणति उससे [ सर्वतः विरमति] सर्व प्रकार रहित होता है। भावार्थ इस प्रकार है – ऐसा लक्षण सम्यग्दृष्टि जीवके अवश्य होता है। ऐसा लक्षण होनेपर अवश्य वैराग्य गुण है। क्या करके ऐसा होता है ? ''स्वं परं च इदं व्यतिकरम् तत्त्वतः ज्ञात्वा'' [ स्वं] शुद्ध चैतन्यमात्र मेरा स्वरूप है, [ परं] द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्मका विस्तार पराया – पुद्गल द्रव्यका है, [इदं व्यतिकरम् ] ऐसा विवरण [ तत्त्वतः ज्ञात्वा ] कहनेके लिए नहीं है, वस्तुस्वरूप ऐसा ही है ऐसा अनुभवरूप जानता है सम्यग्दृष्टि जीव, इसलिए ज्ञानशक्ति है। आगे इतना करता है सम्यग्दृष्टि जीव सो किसके लिए ? उत्तर इस प्रकार है - "स्वं वस्तुत्वं कलयितुम्' [स्वं वस्तुत्वं ] अपना शुद्धपना, उसके [ कलयितुम् ] निरंतर अभ्यास अर्थात् वस्तुकी प्राप्तिके निमित्त। उस वस्तुकी प्राप्ति किससे होती है ? "स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या'' अपने शुद्ध स्वरूपका लाभ परद्रव्यका सर्वथा त्याग ऐसे कारणसे।। ४–१३६ ।।
[ मंदाक्रान्ता] सम्यग्दृष्टि: स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्यादित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोऽप्याचरन्तु। आलम्बन्तां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ताः।। ५-१३७ ।।
[हरिगीत] मैं स्वयं सम्यग्दृष्टि हूँ हूँ बंध से विरहित सदा। यह मानकर अभिमान में पुलकित वदन मस्तक उठा।। जो समिति आलंबे महाव्रत आचरे पर पापमय। दिग्मूढ़ जीवों का अरे जीवन नहीं अध्यात्ममय।।१३७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- इस बार ऐसा कहते हैं कि सम्यग्दृष्टि जीवके विषय भोगते हुए कर्मका बंध नहीं है, सो कारण ऐसा है कि सम्यग्दृष्टिका परिणाम अति ही रूखा है, इसलिए भोग ऐसा लगता है मानो कोई रोगका उपसर्ग होता है। इसलिए कर्मका बंध नहीं है, ऐसा ही है। जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव पञ्चेन्द्रियोंके विषयके सुखको भोगते हैं वे परिणामोंसे चिकने हैं, मिथ्यात्व भावका ऐसा ही परिणाम है, सहारा किसका है। सो वे जीव ऐसा मानते हैं कि हम भी सम्यग्दृष्टि हैं, हमारे भी विषयसुख भोगते हुए कर्मका बंध नहीं है। सो वे जीव धोखेमें पड़े हैं, उनको कर्मका बंध अवश्य
लिए वे जीव मिथ्यादष्टि अवश्य है। मिथ्यात्वभावके बिना कर्मकी सामग्रीमें प्रीति नहीं उपजती है. ऐसा कहते हैं _'ते रागिणः अद्यापि पापा:" [ते] मिथ्यादष्टि जीवराशि [ रागिण:] शरीर पञ्चेन्द्रियके भोगसुखमें अवश्यकर रंजक हैं। [अद्यापि] करोड़ उपाय जो करे अनंत कालतक तथापि [पापाः ] पापमय है। ज्ञानावरणादि कर्मबंधको करते हैं, महानिन्द्य हैं।
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