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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[ रथोद्धता] नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत्स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवैभवविरागताबलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः।। ३-१३५ ।।
[दोहा] बंधे न ज्ञानी कर्म से, बल विराग अर ज्ञान। यद्यपि सेवें विषय को, तदपि असेवक जान।।१३५ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- 'तत् असौ सेवक: अपि असेवकः'' [ तत् ] तिस कारणसे [ असौ] सम्यग्दृष्टि जीव [ सेवक: अपि] कर्मके उदयसे हुआ है जो शरीर पञ्चेन्द्रिय विषय सामग्री, उसको भोगता है तथापि [असेवक:] नहीं भोगता है। किस कारण ? ''यत् ना विषयसेवने अपि विषयसेवनस्य स्वं फलं न अश्नते' [यत] जिस कारणसे [ ना] सम्यग्दष्टि जीव | विषयसेवने अपि] पञ्चेन्द्रिय संबंधी विषयोंको सेवता है तथापि [ विषयसेवनस्य स्वं फलं] पञ्चेन्द्रिय भोगका फल है ज्ञानावरणादि कर्मका बंध, उसको [न अश्नुते] नहीं पाता है। ऐसा भी किस कारणसे ?
जानवैभवविरागताबलात" [ज्ञानवैभव ] शद्धस्वरूपका अनभव. उसकी महिमा. उसके कारण अथवा [ विरागताबलात] कर्मके उदयसे है विषयका सख. जीवका स्वरूप नहीं है. इसलिए विषयसुखमें रति नहीं उत्पन्न होती है, उदास भाव है, इस कारण कर्मबंध नहीं होता है। भावार्थ इस प्रकार है – सम्यग्दृष्टि जो भोग भोगता है सो निर्जरा के निमित्त है।। ३-१३५ ।।
[मन्दाक्रान्ता]
सम्यग्दृष्टेर्भवति नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः स्वं वस्तुत्वं कलयितुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या। यस्माज्ज्ञात्वा व्यतिकरमिदं तत्त्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात्।। ४-१३६ ।।
[हरिगीत] निजभाव को निज जान अपना पन करें जो आतमा। परभाव से हो भिन्न नित निज में रमें जो आतमा ।। वे आतमा सद्दृष्टि उनके ज्ञान अर वैराग्य बल । हो नियम से- यह जानिये पहिचानिये निज आत्मबल।।१३६ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "सम्यग्दृष्टे: नियतं ज्ञानवैराग्यशक्तिः भवति'' [ सम्यग्दृष्टे:] द्रव्यरूपसे मिथ्यात्वकर्म उपशमा है, भावरूपसे शुद्ध सम्यक्त्वभावरूप परिणमा है जो जीव, उसके [ज्ञान] शुद्धस्वरूपका अनुभवरूप जानपना, [ वैराग्य ] जितने परद्रव्य द्रव्यकर्मरूप, भावकर्मरूप, नोकर्मरूप ज्ञेयरूप है उन समस्त परद्रव्योंका सर्व प्रकार त्याग - [शक्ति:] ऐसी दो शक्तियाँ [ नियतं भवति] अवश्य होती है-सर्वथा होती हैं। दोनों शक्तिया जिस प्रकार होती है उस प्रकार कहते हैं“यस्मात् अयं
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