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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] निर्जरा-अधिकार १२३ और कैसा है ? "द्वन्द्वमयं स्वादं विधातुम् असहः'' [द्वन्द्वमयं] कर्मके संयोगसे हुआ है विकल्परूप आकुलतारूप [स्वादं] अज्ञानी जन सुख करके मानते हैं परंतु दुःखरूप है ऐसा जो इन्द्रिय विषयजनित सुख उसको [विधातुम् ] अंगीकार करने के लिए [ असह: ] असमर्थ है। भावार्थ इस प्रकार है – विषय कषायको दुःखरूप जानते हैं। और कैसा है ? ' ' स्वां वस्तुवृत्तिं विदन'' [ स्वां] अपना द्रव्यसंबंधी [वस्तुवृतिं] आत्माका शुद्ध स्वरूप, उससे [ विदन] तद्रूप परिणमता हुआ। और कैसा है ? "आत्मात्मानुभवानुभावविवशः'' [ आत्मा] चेतनद्रव्य, उसका [आत्मानुभव] आस्वाद उसकी [अनुभाव] महिमा उसके द्वारा विवशः] गोचर है। और कैसा है ? 'विशेषोदयं भ्रश्यत्'' [ विशेष ] ज्ञानपर्याय उसके द्वारा [ उदयं] नाना प्रकार उनको [ भ्रश्यत् ] मेटता हुआ। और कैसा है ? "सामान्यं कलयन्'' [ सामान्यं] निर्भेद सत्तामात्र वस्तुको [ कलयन् ] अनुभव करता हुआ। ८–१४०।। [शार्दूलविक्रीडित] अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पीताखिलभावमण्डलरसप्राग्भारमत्ता इव। यस्याभिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकीभवन वल्गत्युत्कलिकाभिरद्भुतनिधिश्चैतन्यरत्नाकरः ।। ९-१४१।। [हरिगीत] सब भाव पी संवेदनाएँ मत्त होकर स्वयं ही। हों उछलती जिस भावमें अद्भुत निधि वह आतमा।। भगवान वह चैतन्य रत्नाकर सदा ही एक है। फिर भी अनेकाकार होकर स्वयं में ही उछलता ।।१४१।। खंडान्वय सहित अर्थ:- 'सः एष: चैतन्यरत्नाकरः'' [ सः एष:] जिसका स्वरूप कहा है तथा कहेंगे ऐसा [चैतन्यरत्नाकरः] जीवद्रव्यरूपी महासमुद्र। भावार्थ इस प्रकार है - जीवद्रव्य समुद्रकी उपमा देकर कहा गया है सो इतना कहनेपर द्रव्यार्थिकनयसे एक है, पर्यायार्थिकनयसे अनेक है। जिसप्रकार समुद्र एक है, तरंगावलिसे अनेक है। "उत्कलिकाभिः'' समुद्रके पक्षमें तरंगावलि, जीवके पक्षमें एक ज्ञानगुणके मतिज्ञान, श्रुतज्ञान इत्यादि अनेक भेद उनके द्वारा “वल्गति'' अपने बलसे अनादि कालसे परिणम रहा है। कैसा है ? "अभिन्नरसः'' जितनी पर्याय हैं उनसे भिन्न सत्ता नहीं है, एक ही सत्त्व है। और कैसा है ? " भगवान्'' ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य इत्यादि अनेक गुणोंसे बिराजमान है। और कैसा है ? ''एक: अपि अनेकीभवन्'' [एक: अपि] सत्तास्वरूपसे एक है तथापि [अनेकीभवन्] अंशभेद करनेपर अनेक है। और कैसा है ? "अद्भुतनिधिः'' [ अद्भुत] अनंत कालतक चारों गतियोंमें फिरते हुए जैसा सुख कहीं नहीं पाया ऐसे सुखका [निधिः] निधान है। और कैसा है ? 'यस्य इमाः संवेदनव्यक्तयः स्वयं उच्छलन्ति' [ यस्य ] जिस द्रव्यके [इमाः ] प्रत्यक्षरूपसे विद्यमान [ संवेदन] Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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