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कहान जैन शास्त्रमाला]
आस्रव-अधिकार
१०७
[शार्दूलविक्रीडित] धीरोदारमहिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिं त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वंकषः कर्मणाम्। तत्रस्थाः स्वमरीचिचक्रमचिरात्संहृत्य निर्यद्वहि: पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः।। ११-१२३।।
[हरिगीत] धीर और उदार महिमायुत अनादि अनन्त जो । उस ज्ञान में थिरता करे अर कर्मनाशक भावजो ।। सदज्ञानियों को कभी भी वह शुद्धनय ना हेय है। विज्ञानघन इक अचल आतम ज्ञानियों का ज्ञेय है।।१२३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- “कृतिभिः जातु शुद्धनयः त्याज्य: न हि'' [ कृतिभिः ] सम्यग्दृष्टि जीवोंके द्वारा [जातु] सूक्ष्मकालमात्र भी [शुद्धनयः] शुद्ध चैतन्यमात्रवस्तुका अनुभव [त्याज्यः न हि] विस्मरण योग्य नहीं है। कैसा है शुद्धनय ? "बोधे धृतिं निबध्नन्'' [बोधे] आत्मस्वरूपमें [धृतिं] अतीन्द्रिय सुखस्वरूप परिणतिको [निबध्नन्] परिणमाता है। कैसा है बोध ? 'धीरोदारमहिम्नि'' [धीर ] शाश्वती [ उदार] धाराप्रवाहरूप परिणमनशील, ऐसी है [ महिम्नि] बढ़ाई जिसकी, ऐसा है। और कैसा है ? 'अनादिनिधने' [अनादि] नहीं है आदि [अनिधने] नहीं है अंत जिसका, ऐसा है। और कैसा है शुद्धनय ? "कर्मणाम् सर्वंकषः'' [कर्मणाम् ] ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्मपिण्डका अथवा राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्ध परिणामोंका [ सर्वंकष:] मूलसे क्षयकरणशील है। "तत्रस्थाः शान्तं महः पश्यन्ति'' [तत्रस्थाः ] शुद्धस्वरूप-अनुभवमें मग्न है जो जीव, वे [ शान्तं] सर्व उपाधिसे रहित ऐसे [ महः] चैतन्य द्रव्यको [ पश्यन्ति ] प्रत्यक्षरूपसे प्राप्त करते हैं। भावार्थ इस प्रकार है - परमात्मपदको प्राप्त होते हैं। कैसा है मह ? "पूर्णं' असंख्यात प्रदेश ज्ञान बिराजमान है। और कैसा है ? ''ज्ञानघनौघम्" चेतनागुणका पुंज है। और कैसा है ?
"एकम्'' समस्त विकल्पसे रहित निर्विकल्प वस्तुमात्र है। और कैसा है ? "अचलं'' कर्मसंयोगके मिटनेसे निश्चल है। क्या करके ऐसे स्वरूपकी प्राप्ति होती है ? " स्वमरीचिचक्रम् अचिरात् संहृत्य' [ स्वमरीचिचक्रम् ] झूठ है, भ्रम है जो कर्मकी सामग्री इन्द्रिय, शरीर रागादिमें आत्मबुद्धि , उसको [अचिरात्] तत्कालमात्र [संहृत्य] विनाशकर। कैसा है मरीचिचक्र ? "बहिः निर्यत्'' अनात्मपदार्थोमें भ्रमता है। भावार्थ इस प्रकार है - परमात्मपदकी प्राप्ति होनेपर समस्त विकल्प मिटते हैं।। ११-१२३।।
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