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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १०६ समयसार-कलश [भगवान् श्री कुन्द-कुन्द उतने काल चारित्रमोह कर्म कीले हुए सर्पके समान अपना कार्य करने के लिए समर्थ नहीं था। जब वही जीव सम्यक्त्वके भावसे भ्रष्ट हुआ मिथ्यात्व भावरूप परिणमा तब उकीले हुए सर्पके समान अपना कार्य करने के लिए समर्थ हुआ। चारित्रमोहकर्मका कार्य ऐसा जो जीवके अशुद्ध परिणमनका निमित्त होना। भावार्थ इस प्रकार है – जीवके मिथ्यादृष्टि होनेपर चारित्रमोहका बन्ध भी होता है। जब जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तब चारित्रमोहके उदयमें बंध होता है परंतु बंधशक्ति हीन होती है, इसलिए बंध नहीं कहलाता। इस कारण सम्यक्त्वके होनेपर चारित्रमोहको कीले हुए सर्पके समान ऊपर कहा है। जब सम्यक्त्व छूट जाता है तब उकीले हुए सर्पके समान चारित्रमोहको कहा सो ऊपरके भावार्थका अभिप्राय जानना।। ९-१२१ ।। [अनुष्टुप] इदमेवात्र तात्पर्य हेयः शुद्धनयो न हि। नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्त्यागाद्बन्ध एव हि।। १०-१२२ ।। [हरिगीत] इस कथन का है सार यह कि शुद्धनय उपादेय है। अर शुद्धनय द्वारा निरूपित आत्मा ही ध्येय है ।। क्योंकि इसके त्याग से ही बंध और अशान्ति है। इसके ग्रहण में आत्मा की मुक्ति एवं शान्ति है।।१२२।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''अत्र इदम् एव तात्पर्यं'' [अत्र] इस समस्त अधिकारमें [ इदम् एव तात्पर्यं] निश्चयसे इतना ही कार्य है। वह कार्य कैसा ? ''शुद्धनयः हेयः न हि'' [ शुद्धनयः] आत्माके शुद्ध स्वरूपका अनुभव [ हेयः न हि] सूक्ष्मकालमात्र भी विसारने [ भूलने] योग्य नहीं है। किस कारण ? —“हि तत् अत्यागात् बन्ध: नास्ति'' [हि] जिस कारण [तत्] शुद्धस्वरूपका अनुभव, उसके [ अत्यागात् ] नहीं छूटनेसे [बन्धः नास्ति] ज्ञानावरणादि कर्मका बंध नहीं होता। और किस कारण ? "तत् त्यागात् बन्धः एव'' [ तत्] शुद्ध स्वरूपका अनुभव , उसके [ त्यागात् ] छूटनेसे [ बन्धः एव ] ज्ञानावरणादि कर्मका बंध है। भावार्थ प्रगट है ।। १०–१२२।। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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