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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] आस्रव-अधिकार १०५ प्रगटरूपसे पाते हैं। कैसा पाते हैं ? ' 'बन्धविधुरम्'' [बन्ध ] अनादि कालसे एक बंधपर्यायरूप चला आया था ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गलपिंड उससे [ विधुरं] सर्वथा रहित है। भावार्थ इस प्रकार है - सकल कर्मके क्षयसे हुआ है शुद्ध , उसकी प्राप्ति होती है शुद्धस्वरूपका अनुभव करते हुए। कैसे है वे जीव ? ''रागादिमुक्तमनसः'' राग, द्वेष, मोहसे रहित है परिणाम जिनका, ऐसे हैं। और कैसे हैं ? " सततं भवन्तः'' [ सततं] निरंतरपने [भवन्तः ] ऐसे ही हैं। भावार्थ इस प्रकार है – कोई जानेगा कि सर्व काल प्रमादी रहता है, कभी एक जैसा कहा वैसा होता है सो इस प्रकार तो नहीं, सदा सर्व काल शुद्धपनेरूप रहता है।। ८–१२० ।। [वसन्ततिलका] प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः। ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्।।९-१२१ ।। [हरिगीत] च्युत हुए जो शुद्धनय से बोध विरहित जीव वे। पहले बंधे द्रव्यकर्म से रागादि में उपयुक्त हो ।। अरे विचित्र विकल्प वाले और विविध प्रकार के । विपरीतता से भरे विध-विध कर्मका बंधन करें।।१२१ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- ''तु पुनः'' ऐसा भी है- ''ये शुद्धनयतः प्रच्युत्य रागादियोगं उपयान्ति ते इह कर्मबन्धम् बिभ्रति'' [ये] जो कोई उपशम-सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि जीव [शुद्धनयतः] शुद्ध चैतन्यस्वरूपके अनुभवसे [प्रच्युत्य ] भ्रष्ट हुए हैं तथा [ रागादि] राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्ध परिणाम [ योगम् ] रूप [ उपयान्ति ] होते हैं [ते] ऐसे हैं जो जीव वे [ कर्मबन्धम् ] ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गलपिण्ड [बिभ्रति] नया उपार्जित करते हैं। भावार्थ इस प्रकार है - सम्यग्दृष्टि जीव जब तक सम्यक्त्वके परिणामोंसे साबुत रहता हैं तब तक राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्ध परिणामके नहीं होनेसे ज्ञानावरणादि कर्मबंध नहीं होता। [किन्तु] जो सम्यग्दृष्टि जीव थे पीछे सम्यक्त्वके परिणामसे भ्रष्ट हुए, उनको राग, द्वेष, मोहरूप अशुद्ध परिणामके होनेसे ज्ञानावरणादि कर्मबंध होता है, क्योंकि मिथ्यात्वके परिणाम अशुद्धरूप हैं। कैसे हैं वे जीव ? — “विमुक्तबोधाः' [विमुक्त] छूटा है [ बोधाः] शुद्धस्वरूपका अनुभव जिनका, ऐसे हैं। कैसा है कर्मबंध ? "पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्'' [पूर्व] सम्यक्त्वके बिना उत्पन्न हुए [बद्ध] मिथ्यात्व, राग, द्वेषरूप परिणामके द्वारा बाँधे थे जो [द्रव्यास्रवैः] पुद्गलपिण्डरूप मिथ्यात्वकर्म तथा चारित्रमोहकर्म उनके द्वारा [ कृत] किया है [ विचित्र] नाना प्रकार [विकल्प] राग, द्वेष , मोहपरिणाम, उसका [जालम्] समूह ऐसा है। भावार्थ इस प्रकार है - जितने काल जीव सम्यक्त्वके भावरूप परिणमा था Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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