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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
भावार्थ इस प्रकार है - जिस प्रकार कोई धतूरा पीकर सुध जानेपर नाचता है, उसी प्रकार मिथ्यात्वकर्मके उदयमें शुद्धस्वरूपके अनुभवसे भ्रष्ट है। शुभ कर्मके उदयसे जो देव आदि पदवी, उसमें रंजायमान होता है कि मैं देव , मेरे ऐसी विभूति, सो तो पुण्यकर्मके उदयसे; ऐसा मानकर बार-बार रंजायमान होता है।। १३–११२।।
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