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आस्रव अधिकार
जज
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[ द्रुतविलंबित] अथ महामदनिर्भरमन्थरं समररङ्गपरागतमास्रवम्। अयमुदारगभीरमहोदयो जयति दुर्जयबोधधनुर्धरः।।१-११३।।
[हरिगीत] सारे जगत को मथ रहा उन्मत्त आस्रवभाव यह। समरांगण में समागत मदमत्त आस्रवभाव यह ।। मर्दन किया रणभूमि में इस भाव को जिस ज्ञानने। वह धीर है गम्भीर है हम रमें नित उस ज्ञान में ।।११३।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- “अथ अयम् दुर्जयबोधधनुर्धर: आस्रवम् जयति'' [अथ] यहाँ से लेकर [ अयम् दुर्जय ] यह अखंडित प्रताप, ऐसा [बोध ] शुद्धस्वरूप-अनुभव, ऐसा है [धनुर्धर:] महायोद्धा, वह [आस्रवम् ] अशुद्ध रागादि परिणामलक्षण आस्रव, उसको [ जयति] मेटता है। भावार्थ इस प्रकार है - यहाँ से लेकर आस्रवका स्वरूप कहते हैं। कैसा है ज्ञान योद्धा ? ''उदारगभीर-महोदयः'' [ उदार ] शाश्वत ऐसा है [ गभीर ] अनन्त शक्ति विराजमान, ऐसा है [ महोदयः] स्वरूप जिसका, ऐसा है। कैसा है आस्रव ? "महामदनिर्भरमन्थरं'' [महामद] समस्त संसारी जीवराशि आस्रवके आधीन है, उससे हुआ है गर्व-अभिमान, उससे [निर्भर] मग्न हुआ है [ मन्थरं] मतवालाकी भाँति, ऐसा है। "समररङ्गपरागतम्'' [ समर] संग्राम ऐसी ही [ रङ्ग] भूमि, उसमें [परागतम्] सन्मुख आया है। भावार्थ इस प्रकार है – जिस प्रकार प्रकाश अंधकार का परस्पर विरोध है उसी प्रकार शुद्ध ज्ञान आस्रव का परस्पर विरोध है।। १–११३।।
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