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कहान जैन शास्त्रमाला]
पुण्य-पाप-अधिकार
[शिखरिणी] निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्म्य न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः। तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः।। ५-१०४।।
[रोला] सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से। अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में।। अरे मुनिश्वर तो निशदिन निज में ही रहते । निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते।।१०४ ।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- यहाँ कोई प्रश्न करता है कि शुभ क्रिया तथा अशुभ क्रिया सर्व निषिद्ध की, तो मुनीश्वर किसे अवलम्बते हैं ? उसका ऐसा समाधान किया जाता है-"सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि निषिद्धे' [ सर्वस्मिन् ] आमूल चूल [ सुकृत] व्रत संयम तपरूप क्रिया अथवा शुभोपयोगरूप परिणाम [ दुरिते] विषय-कषायरूप क्रिया अथवा अशुभोपयोगरूप संक्लेश परिणाम, ऐसी [ कर्मणि ] करतूतिरूप [निषिद्धे ] मोक्षमार्ग नहीं ऐसा मानते हुए “किल नैष्कम्य प्रवृत्ते'' [किल] निश्चयसे [ नैष्कर्ये] सूक्ष्म स्थूलरूप अहतर्जल्प बहिर्जल्परूप समस्त विकल्पोंसे रहित निर्विकल्प शुद्ध चैतन्यमात्र प्रकाशरूप वस्तु मोक्षमार्ग ऐसा [प्रवृत्ते] एकरूप ऐसा ही है ऐसा निश्चयसे ठहराते हुए ''खलु मुनयः अशरणाः न सन्ति'' [ खलु ] निश्चयसे [ मुनयः] संसार शरीर भोगसे विरक्त होकर धरा है यतिपना जिन्होंने, वे [ अशरणा: न सन्ति ] अवलंबन बिना शून्यमन ऐसे तो नहीं हैं। तो कैसा है ? " तदा हि एषां ज्ञानं स्वयं शरणं'' [ तदा] जिस कालमें ऐसी प्रतीति आती है कि अशुभ क्रिया मोक्षमार्ग नहीं, शुभ क्रिया भी मोक्षमार्ग नहीं, उस कालमें [ हि] निश्चयसे [ एषां] मुनीश्वरोंको [ज्ञानं स्वयं शरणं] शुद्धस्वरूपका अनुभव सहज ही आलम्बन है। कैसा है ज्ञान ? ''ज्ञाने प्रतिचरितम्'' जो बाह्यरूप परिणमा था वही अपने शुद्धस्वरूप परिणमा है। शुद्ध स्वरूपका अनुभव होनेपर कुछ विशेष भी है, कहते हैं- "एते तत्र निरताः परमम् अमृतं विन्दन्ति'' [ एते] विद्यमान जो सम्यग्दृष्टि मुनीश्वर [ तत्र] शुद्धस्वरूपके अनुभवमें [ निरताः] मग्न हैं वे [ परमम् अमृतं] सर्वोत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुखको [ विन्दन्ति] आस्वादते हैं। भावार्थ इस प्रकार है- शुभ अशुभ क्रियामें मग्न होता हुआ जीव विकल्पी है, इससे दुःखी है। क्रियासंस्कार छूटकर शुद्धस्वरूपका अनुभव होते ही जीव निर्विकल्प है, इससे सुखी है।। ५-१०४।।
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