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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहान जैन शास्त्रमाला] पुण्य-पाप-अधिकार उसी प्रकार कोई जीव शुभोपयोगी होता हुआ यतिक्रियामें मग्न होता हुआ शुद्धोपयोगको नहीं जानता, केवल यतिक्रियामात्र मग्न है। वह जीव ऐसा मानता है कि 'मैं तो मुनीश्वर, हमको विषयकषायसामग्री निषिद्ध है।' ऐसा जानकर विषय-कषायसामग्रीको छोड़ता है, आपको धन्यपना मानता है, मोक्षमार्ग मानता है। सो विचार करनेपर ऐसा जीव मिथ्यादृष्टि है। कर्मबन्धको करता है, कोई भलापन तो नहीं है। 'अन्यः तया एव नित्यं नाति'' [अन्यः ] शूद्रीके पेटसे उपजा है, शूद्रका प्रतिपाल हुआ है ऐसा जीव [ तया] मदिरासे [ एव] अवश्य ही [नित्यं साति] नित्य अति मग्न हो पीता है। क्या जानकर पीता: है ? "स्वयं शूद्रःइति'' ' मैं शूद्र, हमारे कुलमें मदिरा योग्य है, ऐसा जानकर। ऐसा जीव विचार करनेपर चाण्डाल है। भावार्थ इस प्रकार है -कोई मिथ्यादृष्टि जीव अशुभोपयोगी है, गृहस्थ क्रियामें रत है- हम गृहस्थ, मेरे विषय-कषाय क्रिया योग्य है ऐसा जानकर विषय-कषाय सेवता है। सो भी जीव मिथ्यादृष्टि है, कर्मबंध करता है, क्योंकि कर्मजनित पर्यायमात्रको आपरूप जानता है, जीवके शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं है।। २–१०१।। [उपजाति] हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः। तद्बन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं स्वयं समस्तं खलु बन्धहेतुः।। ३-१०२।। [रोला] अरे पुण्य अर पाप कर्म का हेतु एक है। आश्रय अनुभव अर स्वभाव भी सदा एक है।। अतः कर्म को एक मानना ही अभीष्ट है। भले-बुरे का भेद जानना ठीक नहीं है।।१०२।। खंडान्वय सहित अर्थ:- यहाँ कोई मतान्तररूप होकर आशंका करता है - ऐसा कहता है कि कर्मभेद है - कोई कर्म शुभ है, कोई कर्म अशुभ है। किस कारणसे ? हेतुभेद है, स्वभावभेद है, अनुभवभेद है, आश्रय भिन्न है । इन चार भेदोंके कारण कर्मभेद है। वहाँ हेतु अर्थात् कारण भेद है। विवरण- संक्लेश परिणामसे अशुभकर्म बँधता है, विशुद्ध परिणामसे शुभबन्ध होता है । स्वभावभेद अर्थात प्रकतिभेद है । विवरण- अशभ कर्मसम्बन्धी प्रकति भिन्न है – पदगल कर्मवर्गणा भिन्न है: शभकर्मसंबंधी प्रकति भिन्न है - पदगल कर्मवर्गणा भी भिन्न है। अनभव अर्थात कर्मका रस. सो भी रसभेद है। विवरण-अशुभकर्मके उदयमें जीव नारकी होता है अथवा तिर्यंच होता है अथवा हीन मनुष्य होता है, वहाँ अनिष्ट विषयसंयोगरूप दुःखनको पाता है, अशुभ कर्मका स्वाद ऐसा है। शुभ कर्मके उदयमें जीव देव होता है अथवा उत्तम मनुष्य होता है, वहाँ इष्ट विषयसंयोगरूप सुखको पाता है, शुभकर्मका स्वाद ऐसा है । इसलिए स्वादभेद भी है। आश्रय अर्थात् फलकी निष्पत्ति ऐसा भी भेद है। विवरण- अशुभकर्मके उदयमें हीन पर्याय होती है, वहाँ अधिक संक्लेश होता है, उससे संसारकी परिपाटी होती है। शुभकर्मके उदयमें उत्तम पर्याय होती है। वहाँ धर्मकी सामग्री मिलती है, उस धर्मकी सामग्रीसे जीव मोक्षजाता है, इसलिए मोक्षकी परिपाटी शुभकर्म है। ऐसा कोई मिथ्यावादी मानता है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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