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कहान जैन शास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[ रथोद्धता ]
यः करोति स करोति केवलं
यस्तु वेत्तिस तु वेत्ति केवलम् । यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित्
यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित्।। ५१-९६।।
[ रोला ]
केवल करता ही होवे । केवल ज्ञाता ही होवे ।।
जो करता वह जो जाने वह बस जो करता वह नहीं जानता कुछ भी भाई । जो जाने वह करे नहीं कुछ भी है भाई ।। ९६ ।।
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खंडान्वय सहित अर्थ:- इस समय सम्यग्दृष्टि जीवका और मिथ्यादृष्टि जीवका परिणाम भेद
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बहुत है वही कहते हैं- ' यः करोति सः केवलं करोति " [ यः ] जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव [ करोति ] मिथ्यात्व - रागादि परिणामरूप परिणमता है [ सः केवलं करोति ] वह वैसे ही परिणामका कर्ता होता है।‘— तु यः वेत्ति '' जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धस्वरूपके अनुभवरूप परिणमता है ‘“ सः केवलम् वेत्ति ’’ वह जीव उस ज्ञानपरिणामरूप है, इसलिए केवल ज्ञाता है, कर्ता नहीं है। यः करोति सः क्वचित् न वेत्ति" जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व - रागादिरूप परिणमता है वह शुद्धस्वरूपका अनुभवशील एक ही काल तो नहीं होता । " यः तु वेत्ति सः क्वचित् न करोति" जो कोई सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धस्वरूपको अनुभवता है वह जीव मिथ्यात्व - रागादि भावका परिणमनशील नहीं होता। भावार्थ इस प्रकार है कि सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके परिणाम परस्पर विरुद्ध है। जिस प्रकार सूर्यका प्रकाश होते हुए अंधकार नहीं होता, अंधकार होते हुए प्रकाश नहीं होता, उसी प्रकार सम्यक्त्वके परिणाम होते हुए मिथ्यात्वपरिणमन नहीं होता। इस कारण एक कालमें एक परिणामरूप जीव द्रव्य परिणमता है, अतः उस परिणामका कर्ता होता है । इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव कर्मका कर्ता, सम्यग्दृष्टि जीव कर्मका अकर्ता - ऐसा सिद्धान्त सिद्ध हुआ ।। ५१-९६ ।।
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