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समयसार-कलश
[भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
[इन्द्रवजा] ज्ञप्ति: करोतौ न हि भासतेऽन्तः ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेऽन्तः। ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च।। ५२-९७ ।।
[रोला] करने रूप क्रिया में जानन भसित ना हो। जानन रूप क्रिया में करना भसित ना हो।। इसीलिए तो जानन-करना भिन्न भिन्न हैं। इसीलिए तो ज्ञाता-कर्ता भिन्न भिन्न हैं।।९७।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- "अन्तः'' सूक्ष्म द्रव्यस्वरूप दृष्टिसे "ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासते" [ज्ञप्ति:] ज्ञानगुण [करोतौ] मिथ्यात्व-रागादिरूप चिक्कणता इनमें [ न हि भासते] एकत्वपना नहीं है। भावार्थ इस प्रकार है -संसार-अवस्था [ रूप] मिथ्यादृष्टि जीवके ज्ञानगुण भी है और रागादिचिक्कणता भी है, कर्मबंध होता है सो रागादि सचिक्कणता से होता है। ज्ञानगुणके परिणमनसे नहीं होता ऐसा वस्तुका स्वरूप है। तथा 'ज्ञप्तौ करोतिः अन्तः न भासते'' [ज्ञप्तौ] ज्ञानगुणमें [करोति:] अशुद्ध रागादि परिणमनका [अन्तः न भासते] अंतरंगमें एकत्वपना नहीं है। "ततः ज्ञप्तिः करोतिः च विभिन्ने'' [ततः] उस कारणसे [ज्ञप्तिः] ज्ञानगुण [ करोतिः] अशुद्धपना [विभिन्ने] भिन्न भिन्न हैं, एकरूप तो नहीं है।भावार्थ इस प्रकार है – ज्ञानगुण, अशुद्धपना देखनेपर तो मिलेके दिखता हैं, परंतु स्वरूपसे भिन्न – भिन्न है। विवरण-ज्ञानपना मात्र ज्ञानगुण है, उसमें गर्भित यही दिखता है। सचिक्कणपना सो रागादि है, उससे अशुद्धपना कहा जाता है। "ततः स्थितं ज्ञाता न कर्ता'' [ततः] इस कारणसे [ स्थितं] ऐसा सिद्धान्त निष्पन्न हुआ[ ज्ञाता] सम्यग्दृष्टि पुरुष [ न कर्ता] रागादि अशुद्ध परिणामका कर्ता नहीं होता। भावार्थ इस प्रकार है -द्रव्यके स्वभावसे ज्ञानगुण कर्ता नहीं है, अशुद्धपना कर्ता है। सो सम्यग्दृष्टिके अशुद्धपना नहीं है, इसलिए सम्यग्दृष्टि कर्ता नहीं है।। ५२-९७ ।।
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