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समयसार-कलश
[ भगवान् श्री कुन्द-कुन्द
"दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्' [ दूरं] अनादि कालसे लेकर [भूरि] अति बहुत है [विकल्प] कर्मजनित जितने भाव उनमें आत्मरूप संस्कारबुद्धि, उसका [जाल] समूह, वही है [ गहने] अटवीवन, उसमें [भ्राम्यन्] भ्रमता हुआ। भावार्थ इस प्रकार है – जिस प्रकार पानी अपने स्वादसे भ्रष्ट हुआ नाना वृक्षरूप परिणमता है उसी प्रकार जीवद्रव्य अपने शुद्धस्वरूपसे भ्रष्ट हुआ नाना प्रकार चतुर्गतिपर्यायरूप अपनेको आस्वादता है। हुआ तो कैसा हुआ ? ''बलात् निजौघं नीतः'' [बलात् ] बलजोरीसे [ निजौघं] अपने शुद्धस्वरूपलक्षण निष्कर्म अवस्था [ नीतः] उसरूप परिणमा है। ऐसा जिस कारणसे हुआ है वही कहते है-"दूरात् एव'' अनंत काल फिरते हुए प्राप्त हुआ ऐसा जो "विवेकनिम्नगमनात्" [ विवेक] शुद्धस्वरूपका अनुभव ऐसा जो [ निम्नगमनात्] नीचा मार्ग, उस कारणसे जीवद्रव्यका जैसा स्वरूप था वैसा प्रगट हुआ। भावार्थ इस प्रकार है - जिस प्रकार पानी अपने स्वरूपसे भ्रष्ट होता है, काल निमित्त पाकर पुन: जलरूप होता है। नीचे मार्गसे ढलकता हुआ पुंजरूप भी होता है, उसी प्रकार जीवद्रव्य अनादिसे स्वरूपसे भ्रष्ट है। शुद्धस्वरूपलक्षण सम्यक्त्व गुणके प्रगट होनेपर मुक्त होता है, ऐसा द्रव्यका परिणाम है।। ४९९४।।
[अनुष्टुप] विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलम्। न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति।।५०-९५ ।।
[रोला] है विकल्प ही कर्म विकल्पक कर्ता होवे । जो विकल्प को करे वही तो कर्ता होवे ।। नित अज्ञानी जीव विकल्पों में ही होवे । इस विधि कर्ताकर्मभाव का नाश न होवे।।९५।।
खंडान्वय सहित अर्थ:- ''सविकल्पस्य कर्तृकर्मत्वं जातु न नश्यति'' [ सविकल्पस्य ] कर्मजनित हैं जो अशुद्ध रागादि भाव , उनको आपरूप जानता है ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवके [ कर्तृकर्मत्वं] कर्तापना-कर्मपना [जातु] सर्व काल [न नश्यति] नहीं मिटता है। जिस कारणसे ''परं विकल्पक: कर्ता, केवलम् विकल्पः कर्म'' [ परं] एतावन्मात्र [ विकल्पक:] विभाव-मिथ्यात्वपरिणामरूप परिणमा है जो जीव वह [कर्ता] जिस भावरूप परिणमा है उसका कर्ता अवश्य होता है। [ केवलम् ] एतावन्मात्र [विकल्प:] मिथ्यात्व-रागादिरूप अशुद्ध चेतनपरिणामको [कर्म ] जीवकी करतूति जानना। भावार्थ इस प्रकार है - कोई कोई मानेगा कि जीवद्रव्य सदा ही अकर्ता है उसके प्रति ऐसा समाधान है कि जितने काल तक जीवका सम्यक्त्वगुण प्रगट नहीं होता उतने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है। मिथ्यादृष्टि हो तो अशुद्ध परिणामका कर्ता होता है सो जब सम्यकत्वगुण प्रगट होता है तब अशुद्ध परिणाम मिटता है , तब अशुद्ध परिणामका कर्ता नहीं होता ।। ५०-९५।।
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