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________________ ७६ Version 001: remember to check http://www.Atma Dharma.com for updates समयसार - कलश [ स्वागता ] चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमार्थतयैकम् । बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारम्।। ४७-९२।। [ रोला ] मैं हूँ वह चितपुंज कि भावाभावमय । परमारथ से एकसदा अविचल स्वभावमय ।। कर्म जनित यह बंधपद्धति करूँ पार मैं। नित अनुभव यह करूँकि चिन्मय समयसार मैं ।। ९२ ।। 66 खंडान्वय सहित अर्थ:- समयसारम् चेतये'' शुद्ध चैतन्यका अनुभव करना कार्यसिद्धि है। कैसा है ? " अपारम् '' अनादि - अनन्त है। और कैसा है ? ' एकम् " शुद्धस्वरूप है । कैसा करके शुद्धस्वरूप है? ‘— चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमार्थतया एकम्'' [ चित्स्वभाव ] ज्ञानगुण, उसका [भर ] अर्थग्रहण व्यापार उसके द्वारा [भावित ] होते हैं [ भाव ] उत्पाद [ अभाव ] विनाश [ भाव ] ध्रौव्य ऐसे तीन भेद, उनके द्वारा [ परमार्थतया एकम् ] साधा है एक अस्तित्व जिसका । किं कृत्वा - क्या करके ? '' समस्तां बन्धपद्धतिम् अपास्य " [ समस्तां] जितना असंख्यात लोकमात्र भेदरूप है ऐसी जो [ बन्धपद्धतिम् ] ज्ञानावरणादि कर्मबंधरचना, उसका [अपास्य ] ममत्व छोड़कर। भावार्थ इस प्रकार है - शुद्धस्वरूपका अनुभव होनेपर जिस प्रकार नयविकल्प मिटते हैं उसी प्रकार समस्त कर्मके उदयसे होनेवाले जितने भाव हैं वे भी अवश्य मिटते हैं ऐसा स्वभाव है।। ४७–९२ ।। [ भगवान् श्री कुन्दकुन्द - [ शार्दूलविक्रीडित] आक्रामन्नविकल्पभावमचलं पक्षैर्नयानां विना सारो यः समयस्य भाति निभृतैरास्वाद्यमानः स्वयम् । विज्ञानैकरसः स एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान् ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किञ्चनैकोऽप्ययम्।। ४८-९३।। [ हरिगीत ] यह पुण्य पुरूष पुराण सब नयपक्ष बिन भगवान है। यह अचल है अविकल्प है सब यही दर्शन ज्ञान है ।। निभृतजनों का स्वाद्य है अर जो समय का सार है। हो वह एक ही अनुभूति का आधार है । । ९३ ।। खंडान्वय सहित अर्थ:- " यः समयस्य सार: भाति [ य: ] जो [ समयस्य सार: ] शुद्धस्वरूप आत्मा [ भाति ] अपने शुद्ध स्वरूपरूप परिणमता है । जैसा परिणमता है वैसा कहते हैं -'' नयानां पक्षैः विना अचलं अविकल्पभावम् आक्रामन् '' [ नयानां ] द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक ऐसे जो अनेक विकल्प उनके [ पक्षैः विना ] पक्षपात विना किये [ अचलं ] त्रिकाल ही एकरूप है ऐसी Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com
SR No.008397
Book TitleSamaysara Kalash
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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