________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
कहान जैन शास्त्रमाला ]
कर्ता-कर्म-अधिकार
[ रथोद्धता ]
इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्चलविकल्पवीचिभिः। यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं
कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः।। ४६-९१।।
[ दोहा ]
सब
इन्द्रजाल से स्फुरें, विकल्प के पुंज । जो क्षण भरमें लय करे, मैं हूँ वह चित्पुंज ।।९१।।
-
खंडान्वय सहित अर्थ:- '' तत् चिन्महः अस्मि '' मैं ऐसा ज्ञानपुंजरूप हूँ ‘' यस्य विस्फुरणम् '' जिसका प्रकाशमात्र होनेपर " इदम् कृत्स्नम् इन्द्रजालम् तत्क्षणं एव अस्यति'' [ इदम् ] विद्यमान अनेक नयविकल्प जो [ कृत्स्नम् ] अति बहुत हैं, [ इन्द्रजालम् ] झूठा है पर विद्यमान है, वह [ तत्क्षणं ] जिस कालमें शुद्ध चिद्रूप अनुभव होता है उसी काल में [ एव ] निश्चयसे [ अस्यति ] विनश जाता है। भावार्थ इस प्रकार है जैसे सूर्यका प्रकाश होनेपर अंधकार फट जाता है उसी प्रकार शुद्ध चैतन्यमात्रका अनुभव होनेपर यावत् समस्त विकल्प मिटते हैं ऐसी शुद्ध चैतन्यवस्तु है सो मेरा स्वभाव; अन्य समस्त कर्मकी उपाधि है । कैसा है इन्द्रजाल ? '' पुष्कलोच्चल- विकल्पवीचिभि: उच्छलत्'' [ पुष्कल ] अति बहुत, [ उचल ] अति स्थूल ऐसी जो [ विकल्प ] भेदकल्पना, ऐसी जो [वीचिभि: ] तरंगावली उस द्वारा [ उच्छलत् ] आकुलतारूप है, इसलिए हेय है, उपादेय नहीं है ।।
४६ – ९१ ।।
७५
Please inform us of any errors on rajesh@Atma Dharma.com