________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[५३ जीव-पुद्गलपरिणामान्यथानुपपत्त्या निश्चयरूपस्तत्परिणामायत्ततया व्यवहाररूप: कालोऽस्तिकायपञ्चकवल्लोकरूपेण परिणत इति खरतरदृष्ट्याभ्युपगम्यत इति।। २६ ।।
भावार्थ:- 'समय' अल्प है, “निमेष' अधिक है और 'मुहुर्त' उससे भी अधिक है ऐसा जो ज्ञान होता है वह 'समय', 'निमेष' आदिका परिमाण जाननेसे होता है; और वह कालपरिमाण पुद्गलों द्वारा निश्चित होता है। इसलिये व्यवहारकालकी उत्पत्ति पुद्गलों द्वारा होती [ उपचारसे ] कही जाती है।
इस प्रकार यद्यपि व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है इसलिये उसे उपचारसे पुद्गलाश्रित कहा जाता है तथापि निश्चयसे वह केवल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है, पुद्गलसे सर्वथा भिन्न है-ऐसा समझना। जिस प्रकार दस सेर पानीके मिट्टीमय घड़ेका माप पानी द्वारा होता है तथापि घड़ा मिट्टीकी ही पर्यायरूप है, पानीकी पर्यायरूप नहीं है, उसी प्रकार समय-निमेषादि व्यवहारकालका माप पुद्गल द्वारा होता है तथापि व्यवहारकाल कालद्रव्यकी ही पर्यायरूप है, पुद्गलकी पर्यायरूप नहीं है।
कालसम्बन्धी गाथासूत्रोंके कथनका संक्षेप इस प्रकार है:- जीवपुद्गलोंके परिणाममें [समयविशिष्ट वृत्तिमें ] व्यवहारसे समयकी अपेक्षा आती है; इसलिये समयको उत्पन्न करनेवाला कोई
दार्थ अवश्य होना चाहिये। वह पदार्थ सो कालद्रव्य है। कालद्रव्य परिणमित होनेसे व्यवहारकाल होता है और वह व्यवहारकाल पुदगल द्वारा मापा जानेसे उसे उपचारसे पराश्रित कहा जाता है। पंचास्तिकायकी भाँति निश्चयव्यवहाररूप काल भी लोकरूपसे परिणत है ऐसा सर्वज्ञोंने देखा है और अति तीक्ष्ण दृष्टि द्वारा स्पष्ट सम्यक् अनुमान भी हो सकता है।
____ कालसम्बन्धी कथनका तात्पर्यार्थ निम्नोक्तानुसार ग्रहण करने योग्य है:- अतीत अनन्त कालमें जीवको एक चिदानन्दरूप काल ही [स्वकाल ही] जिसका स्वभाव है ऐसे जीवास्तिकायकी उपलब्धि नहीं हुई है; उस जीवास्तिकायका ही सम्यक् श्रद्धान, उसीका रागादिसे भिन्नरूप भेदज्ञान और उसीमें रागादिविभावरूप समस्त संकल्प-विकल्पजालके त्याग द्वारा स्थिर परिणति कर्तव्य है ।। २६ ।।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com