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पंचास्तिकायसंग्रह
अत्र व्यवहारकालस्य कथंचित परायत्तत्वे सदुपपत्तिरुक्ता ।
इह हि व्यवहारकाले निमिषसमयादौ अस्ति तावत् चिर इति क्षिप्र इति संप्रत्ययः । स खलु दीर्धह्रस्वकालनिबंधनं प्रमाणमंतरेण न संभाव्यते । तदपि प्रमाणं पुद्गलद्रव्यपरिणाममन्तरेण नावधार्यते । ततःपरपरिणामद्योतमानत्वाद्व्यवहारकालो निश्चयेनानन्याश्रितोऽपि प्रतीत्यभव इत्यभिधीयते।
तदत्रास्तिकायसामान्यप्ररूपणायामस्तिकायत्वाभावात्साक्षादनुपन्यस्यमानोऽपि
[ भगवान श्री कुन्दकुन्द
गाथा २६
अन्वयार्थ:- [ चिरं वा क्षिप्रं ] 'चिर' अथवा 'क्षिप्र' ऐसा ज्ञान [ - अधिक काल अथवा अल्प काल ऐसा ज्ञान ] [ मात्रारहितं तु ] परिमाण बिना [ - कालके माप बिना ] [ न अस्ति ] नहीं होता; [ सा मात्रा अपि ] और वह परिमाण [ खलु ] वास्तवमें [ पुद्गलद्रव्येण विना ] पुद्गलद्रव्यके नहीं होता; [तस्मात् ] इसलिये [ कालः प्रतीत्यभवः ] काल आश्रितरूपसे उपजनेवाला है [ अर्थात् व्यवहारकाल परका आश्रय करके उत्पन्न होता है ऐसा उपचारसे कहा जाता है ] ।
टीका:- यहाँ व्यवहारकालके कथंचित पराश्रितपनेके विषयमें सत्य युक्ति कही गई है।
प्रथम तो, निमेष - समयादि व्यवहारकालमें 'चिर' और 'क्षिप्र ' ऐसा ज्ञान [ - अधिक काल और अल्प काल ऐसा ज्ञान होता है ]। वह ज्ञान वास्तवमें अधिक और अल्प काल साथ सम्बन्ध रखनेवाले प्रमाण [ – कालपरिमाण ] बिना संभवित नहीं होता; और वह प्रमाण पुद् गलद्रव्यके परिणाम बिना निश्चित नहीं होता। इसलिये, व्यवहारकाल परके परिणाम द्वारा ज्ञात होनेके कारण यद्यपि निश्चयसे वह अन्यके आश्रित नहीं है तथापि आश्रितरूपसे उत्पन्न होनेवाला [ – परके अवलम्बनसे उपजनेवाला ] कहा जाता है।
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इसलिये यद्यपि कालको अस्तिकायपनेके अभावके कारण यहाँ अस्तिकायकी सामान्य प्ररूपणामें उसका *साक्षात् कथन नहीं है तथापि, जीव- पुद्गलके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा सिद्ध होनेवाला निश्चयरूप काल और उनके परिणामके आश्रित निश्चित होनेवाला व्यवहाररूप काल पंचास्तिकायकी भाँति लोकरूपसे परिणत है - ऐसा अत्यन्त तीक्ष्ण दष्टिसे जाना जा सकता है।
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* साक्षात् =सीधा [ कालका विस्तृत सीधा कथन श्री प्रवचनसारके द्वितीय - श्रुतस्कंधमें किया गया है; इसलिये कालका स्वरूप विस्तारसे जाननेके इच्छुक जिज्ञासुको प्रवचनसारमेंसे ते जान लेना चाहिये। ]