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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[४५
जीवस्योत्पादव्ययसदुच्छेदासदुत्पादकर्तृत्वोपपत्त्युपसंहारोऽयम्।
द्रव्यं हि सर्वदाऽविनष्टानुत्पन्नमाम्नतम् ततो जीवद्रव्यस्य द्रव्यरूपेण नित्यत्वमुपन्यस्तम् तस्यैव देवादिपर्यायरूपेण प्रादुर्भवतो भावकर्तृत्वमुक्तं; तस्यैव च मनुष्यादिपर्यायरूपेण व्ययतोऽभावकर्तृत्वमाख्यातं; तस्यैव च सतो देवादिपर्यायस्योच्छेदमारभमाणस्य भावाभावकर्तृत्वमुदितं; तस्यैव चासतः पुनर्मनुष्यादिपर्यायस्योत्पादमारभमाणस्याभावभावकर्तृत्वमभिहितम् सर्वमिदमनवा द्रव्यपर्यायाणामन्यतरगुणमुख्यत्वेन व्याख्यानात् तथा हि-यदा जीव: पर्याय-गुणत्वेन द्रव्यमुख्यत्वेन विवक्ष्यते तदा नोत्पद्यते, न विनश्यति , न च क्रमवृत्त्यावर्तमानत्वात्
गाथा २१
अन्वयार्थ:- [ एवम् ] इसप्रकार [ गुणपर्ययैः सहित ] गुणपर्याय सहित [जीवः ] जीव [ संसरन् ] संसरण करता हुआ [ भावम् ] भाव, [अभावम् ] अभाव, [भावाभावम् ] भावाभाव [च] और [ अभावभावम् ] अभावभावको [ करोति ] करता है।
टीका:- यह, जीव उत्पाद, व्यय, सत्-विनाश और असत्-उत्पादका कर्तृत्व होनेकी सिद्धिरूप उपसंहार है।
___ द्रव्य वास्तवमें सर्वदा अविनष्ट और अनुत्पन्न आगममें कहा है; इसलिये जीवद्रव्यको द्रव्यरूपसे नित्यपना कहा गया। [१] देवादिपर्यायरूपसे उत्पन्न होता है इसलिये उसीको [-जीवद्रव्यको ही] भावका [-उत्पादका] कर्तृत्व कहा गया है; [२] मनुष्यादिपर्यायरूपसे नाशको प्राप्त होता है इसलिये उसीको अभावका [-व्ययका ] कर्तृत्व कहा गया है; [३] सत् [विद्यमान ] देवादिपर्यायका नाश करता है इसलिये उसीको भावाभावका [-सत्के विनाशका] कर्तृत्व कहा गया है; और [४] फिरसे असत् [-अविद्यमान ] मनुष्यादिपर्यायका उत्पाद करता है इसलिये उसीको अभावभावका [असत्के उत्पादका ] कर्तृत्व कहा गया है।
-यह सब निरवद्य [ निर्दोष, निर्बाध , अविरुद्ध ] है, क्योंकि द्रव्य और पर्यायोमेंसे एककी गौणतासे और अन्यकी मुख्यतासे कथन किया जाता है। वह इस प्रकार है :--
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