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पंचास्तिकायसंग्रह
एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च । गुणपज्जयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो।। २१ ।।
एवं भावमभावं भावाभावमभावभावं च। गुणपर्ययैः सहितः संसरन् करोति जीवः ।। २१ ।।
[ भगवान श्री कुन्दकुन्द
बाँस रंगबिरंगा है।' यह अनुमान मिथ्या है; क्योंकि वास्तवमें तो उस बाँसके ऊपरका भाग रंगबिरंगेपनेके अभाववाला है, अरंगी है। बाँसके दृष्टांतकी भाँति - कोई एक भव्य जीव है; उसका नीचेका कुछ भाग [ अर्थात् अनादि कालसे वर्तमान काल तकका और अमुक भविष्य काल तकका भाग ] संसारी है और ऊपरका अनन्त भाग सिद्धरूप [ - स्वाभाविक शुद्ध ] है । उस जीवके संसारी भागमें से कुछ भाग खुला [ प्रगट ] है और शेष सारा संसारी भाग और पूरा सिद्धरूप भाग ढँका हुआ [ अप्रगट ] है । उस जीवका खुला [ प्रगट ] भाग संसारी देखकर अज्ञानी जीव 'जहाँजहाँ जीव हो वहाँ-वहाँ संसारीपना है' ऐसी व्याप्तिकी कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान करता है कि ' अनादि - अनन्त सारा जीव संसारी है।' यह अनुमान मिथ्या है; क्योंकि उस जीवका उपरका भाग [ – अमुक भविष्य कालके बादका अनन्त भाग ] संसारीपनेके अभाववाला है, सिद्धरूप है- ऐसा सर्वज्ञप्रणीत आगमके ज्ञानसे, सम्यक् अनुमानज्ञानसे तथा अतीन्द्रिय ज्ञानसे स्पष्ट ज्ञात होता है ।
इस तरह अनेक प्रकारसे निश्चित होता है कि जीव संसारपर्याय नष्ट करके सिद्धरूपपर्यायरूप परिणमित हो वहाँ सर्वथा असत्का उत्पाद नहीं होता ।। २० ।।
गुणपर्यये संयुक्त जीव संसरण करतो ओ रीते
उद्भव, विलय, वली भाव-विलय, अभाव- उद्भवने करे। २१।
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