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________________ ४४ ] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचास्तिकायसंग्रह एवं भावमभावं भावाभावं अभावभावं च । गुणपज्जयेहिं सहिदो संसरमाणो कुणदि जीवो।। २१ ।। एवं भावमभावं भावाभावमभावभावं च। गुणपर्ययैः सहितः संसरन् करोति जीवः ।। २१ ।। [ भगवान श्री कुन्दकुन्द बाँस रंगबिरंगा है।' यह अनुमान मिथ्या है; क्योंकि वास्तवमें तो उस बाँसके ऊपरका भाग रंगबिरंगेपनेके अभाववाला है, अरंगी है। बाँसके दृष्टांतकी भाँति - कोई एक भव्य जीव है; उसका नीचेका कुछ भाग [ अर्थात् अनादि कालसे वर्तमान काल तकका और अमुक भविष्य काल तकका भाग ] संसारी है और ऊपरका अनन्त भाग सिद्धरूप [ - स्वाभाविक शुद्ध ] है । उस जीवके संसारी भागमें से कुछ भाग खुला [ प्रगट ] है और शेष सारा संसारी भाग और पूरा सिद्धरूप भाग ढँका हुआ [ अप्रगट ] है । उस जीवका खुला [ प्रगट ] भाग संसारी देखकर अज्ञानी जीव 'जहाँजहाँ जीव हो वहाँ-वहाँ संसारीपना है' ऐसी व्याप्तिकी कल्पना कर लेता है और ऐसे मिथ्या व्याप्तिज्ञान द्वारा ऐसा अनुमान करता है कि ' अनादि - अनन्त सारा जीव संसारी है।' यह अनुमान मिथ्या है; क्योंकि उस जीवका उपरका भाग [ – अमुक भविष्य कालके बादका अनन्त भाग ] संसारीपनेके अभाववाला है, सिद्धरूप है- ऐसा सर्वज्ञप्रणीत आगमके ज्ञानसे, सम्यक् अनुमानज्ञानसे तथा अतीन्द्रिय ज्ञानसे स्पष्ट ज्ञात होता है । इस तरह अनेक प्रकारसे निश्चित होता है कि जीव संसारपर्याय नष्ट करके सिद्धरूपपर्यायरूप परिणमित हो वहाँ सर्वथा असत्का उत्पाद नहीं होता ।। २० ।। गुणपर्यये संयुक्त जीव संसरण करतो ओ रीते उद्भव, विलय, वली भाव-विलय, अभाव- उद्भवने करे। २१। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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