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कहानजैनशास्त्रमाला]
षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन
[४१
णाणावरणादीया भावा जीवेण सुट्ठ अणुबद्धा। तेसिमभावं किच्चा अभूदपुव्वो हवदि सिद्धो।।२०।।
ज्ञानावरणाद्या भावा जीवेन सुष्ठु अनुबद्धा। तेषामभावं कुत्वाऽभूतपूर्वो भवति सिद्धः ।। २० ।।
भावार्थ:- जीवको ध्रौव्य अपेक्षासे सत्का विनाश और असत्का उत्पाद नहीं है। मनुष्य मरता है और देव जन्मता है' -ऐसा जो कहा जाता है वह बात भी उपर्युक्त विवरणके साथ विरोधको प्राप्त नहीं होती। जिसप्रकार एक बड़े बाँसकी अनेक पोरें अपने-अपने स्थानोंमें विद्यमान हैं और दूसरी पोरोंके स्थानोंमें अविद्यमान हैं तथा बाँस तो सर्व पोरोंके स्थानोंमें अन्वयरूपसे विद्यमान होने पर भी प्रथमादि पोरके रूपमें द्वितीयादि पोरमें न होनेसे अविद्यमान भी कहा जाता है; उसीप्रकार त्रिकाल-अवस्थायी एक जीवकी नरनारकादि अनेक पर्यायें अपने-अपने कालमें विद्यमान हैं और दूसरी पर्यायोंके कालमें अविद्यमान हैं तथा जीव तो सर्व पर्यायोंमें अन्वयरूपसे विद्यमान होने पर भी मनुष्यादिपर्यायरूपसे देवादिपर्यायमें न होनेसे अविद्यमान भी कहा जाता है।। १९ ।।
गाथा २०
अन्वयार्थ:- [ ज्ञानावरणाद्याः भावाः] ज्ञानावरणादि भाव [जीवेन] जीवके साथ [ सुष्ठु ] भली भाँति [अनुबद्धाः ] अनुबद्ध है; [ तेषाम् अभावं कृत्वा ] उनका अभाव करके वह [अभूतपूर्वः सिद्धः ] अभूतपूर्व सिद्ध [ भवति ] होता है।
टीकाः- यहाँ सिद्धको अत्यन्त असत्-उत्पादका निषेध किया है। [अर्थात् सिद्धत्व होनेसे सर्वथा असत्का उत्पाद नहीं होता ऐसा कहा है।
ज्ञानावरण इत्यादि भावो जीव सह अनुबद्ध छे; तेनो करीने नाश , पामे जीव सिद्धि अपूर्वने। २०।
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