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षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन
कहानजैनशास्त्रमाला ]
[ २९
गुणपर्यायास्त्वन्वयव्य-तिरेकित्वाद्ब्रौव्योत्पत्तिविनाशान् सुचयन्ति नित्यानित्यस्वभावं परमार्थं सच्चोपलक्षयन्तीति ।। १० ।।
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उप्पत्ती व विणासो दव्वस्स य णत्थि अत्थि सब्भावो । विगमुप्पादधवत्तं करेंति तस्सेव पज्जाया।। ११।।
उत्पत्तिर्वो विनाशो द्रव्यस्य च नास्त्यस्ति सद्भावः । विगमोत्पादधुव्रत्वं कुर्वन्ति तस्यैव पर्यायाः ।। ११।।
अत्रोभयनयाभ्यां द्रव्यलक्षणं प्रविभक्तम् ।
व्यतिरेकवाली होनेसे [१] ध्रौव्यको और उत्पादव्ययको सूचित करते हैं तथा [२] नित्यानित्यस्वभाववाले पारमार्थिक सत्को बतलाते हैं।
भावार्थः- द्रव्यके तीन लक्षण हैं: सत् उत्पादव्ययध्रौव्य और गुणपर्यायें । ये तीनों लक्षण परस्पर अविनाभावी हैं; जहाँ एक हो वहाँ शेष दोनों नियमसे होते ही हैं ।। १० ।।
गाथा ११
अन्वयार्थ:-[ द्रव्यस्य च ] द्रव्यका [ उत्पत्ति: ] उत्पाद [ वा ] या [ विनाश: ] विनाश [ न अस्ति ] नहीं है, [सद्भावः अस्ति ] सद्भाव है । [ तस्य एव पर्यायाः ] उसीकी पर्यायें [ विगमोत्पादध्रुवत्वं ] विनाश, उत्पाद और ध्रुवता [ कुर्वन्ति ] करती हैं।
टीका:- यहाँ दोनों नयों द्वारा द्रव्यका लक्षण विभक्त किया है [ अर्थात् दो नयोंकी अपेक्षासे द्रव्यके लक्षणके दो विभाग किये गये हैं ] ।
सहवर्ती गुणों और क्रमवर्ती पर्यायोंके सद्भावरूप, त्रिकाल - अवस्थायी [ त्रिकाल स्थित रहनेवाले ], अनादि-अनन्त द्रव्यके विनाश और उत्पाद उचित नहीं है । परन्तु उसीकी पर्यायोंके—
नहि द्रव्यनो उत्पाद अथवा नाश नहि, सद्भाव छे; तेना ज जे पर्याय ते उत्पाद-लय-ध्रुवता करे । ११ ।
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