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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन ते चेव अत्थिकाया तेकालियभावपरिणदा णिच्चा। गच्छंति दवियभावं कहानजैनशास्त्रमाला ] परियट्टणलिंगसंजुता ।।६।। ते चैवास्तिकाया: त्रैकालिकभावपरिणता नित्याः । गच्छंति द्रव्यभावं परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः।।६।। अत्र पञ्चास्तिकायानां कालस्य च द्रव्यत्वमुक्तम्। * लोकपूरण अवस्थारूप व्यक्तिकी शक्तिका सदैव सद्भाव होनेसे जीवोंको भी कायत्व नामका सावयवपना है ऐसा अनुमान किया ही जा सकता है। पुद्गलो भी ऊर्ध्व अधो-मध्य ऐसे लोकके [ तीन ] विभागरूप परिणत महास्कंधपनेकी प्राप्तिकी व्यक्तिवाले अथवा शक्तिवाले होनेसे उन्हें भी वैसी [कायत्व नामकी ] सावयवपनेकी सिद्धि है ही ।। ५ ।। गाथा ६ [१७ अन्वयार्थ:- [ त्रैकालिकभावपरिणताः ] जो तीन कालके भावोंरूप परिणमित होते हैं तथा [नित्याः] नित्य हैं [ ते च एव अस्तिकायाः ] ऐसे वे ही अस्तिकाय, [ परिवर्तनलिङ्गसंयुक्ताः ] परिवर्तनलिंग [ काल ] सहित, [ द्रव्यभावं गच्छन्ति ] द्रव्यत्वको प्राप्त होते हैं [ अर्थात् वे छहों द्रव्य हैं।] टीका:- यहाँ पाँच अस्तिकायोंको तथा कालको द्रव्यपना कहा है। * लोकपूरण=लोकव्यापी । [ केवलसमुद्द्यात के समय जीवकी त्रिलोकव्यापी दशा होती है। उस समय ‘यह ऊर्ध्वलोकका जीवभाग है, यह अधोलोकका जीवभाग है और यह मध्यलोकका जीवभाग है' ऐसे विभाग किये जा सकते है । ऐसी त्रिलोकव्यापी दशा [ अवस्था ] की शक्ति तो जीवोंमें सदैव है इसलिये जीव सदैव सावयव अर्थात् कायत्ववाले है ऐसा सिद्ध होता है । ] ते अस्तिकाय त्रिकालभावे परिणमे छे, नित्य छे; अ पाँच तेम ज काल वर्तनलिंग सर्वे द्रव्य छे । ६ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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