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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला ] षड्द्रव्य - पंचास्तिकायवर्णन न चैतदाङ्कयम् पुद्गलादन्येषाममूर्तत्वादविभाज्यानां सावयवत्वकल्पनमन्याय्यम् । दृश्यत एवाविभाज्येऽपि विहाय -सीदं घटाकाशमिदमघटाकाशमिति विभागकल्पनम्। यदि तत्र विभागो न कल्पेत तदा यदेव घटाकाशं तदेवाघटाकाशं स्यात् । न च तदिष्टम्। ततः कालाणुभ्योऽन्यत्र सर्वेषां कायत्वाख्यं सावयवत्वमवसेयम्। त्रैलोक्यरूपेण निष्पन्नत्वमपि तेषामस्तिकायत्वसाधनपरमुपन्यस्तम्। तथा च-त्रयाणामूर्ध्वाऽधोमध्यलोकानामुत्पादव्ययध्रौव्यवन्तस्तद्विशेषात्मका भावा भवन्तस्तेषां मूल [१५ अब, [ उन्हें ] कायत्व किस प्रकार है उसका उपदेश किया जाता है :- जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, और आकाश यह पदार्थ 'अवयवी हैं। प्रदेश नामके उनके जो अवयव हैं वे भी परस्पर व्यतिरेकवाले होनेसे पर्यायें कहलाती है। उनके साथ उन [ पाँच ] पदार्थोंको अनन्यपना होनेसे कायत्वसिद्धि घटित होती है। परमाणु [ व्यक्ति - अपेक्षासे ] निरवयव होनेपर भी उनको सावयवपनेकी शक्तिका सद्भाव होनेसे कायत्वसिद्धि “निरपवाद है । वहाँ ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है कि पुद्गलके अतिरिक्त अन्य पदार्थ अमूर्तपनेके कारण 'अविभाज्य होनेसे उनके सावयवपनेकी कल्पना न्याय विरुद्ध [ अनुचित ] है । आकाश अविभाज्य होनेपर भी उसमें 'यह घटाकाश है, यह अघटाकाश [ पटाकाश ] है' ऐसी विभागकल्पना दृष्टिगोचर होती ही है। यदि वहाँ [ कथंचित्] विभागकी कल्पना न की जाये तो जो घटाकाश है वही [ सर्वथा ] अघटाकाश हो जायेगा; और वह तो ईष्ट [मान्य ] नहीं है। इसलिये कालाणुओंके अतिरिक्त अन्य सर्वमें कायत्व नामका सावयवपना निश्चित करना चाहिये। १। अवयवी=अवयववाला; अंशवाला; अंशी; जिनके अवयव [ अर्थात् ] एकसे अधिक प्रदेश ] हों ऐसे । २। पर्यायका लक्षण परस्पर व्यतिरेक है। वह लक्षण प्रदेशोंमें भी व्याप्त है, क्योंकि एक प्रदेश दूसरे प्रदेशरूप न होनेसे प्रदेशोंमें परस्पर व्यतिरेक है; इसलिये प्रदेश भी पर्याय कहलाती है। ३। निरवयव=अवयव रहित; अंश रहित ; निरंश; एकसे अधिक प्रदेश रहित । ४। निरपवाद=अपवाद रहित । [ पाँच अस्तिकायोंको कायपना होनेमें एक भी अपवाद नहीं है, क्योंकि [ उपचारसे ] परमाणुको भी शक्ति - अपेक्षासे अवयव - प्रदेश हैं । ] ५। अविभाज्य= जिनके विभाग न किये जा सकें ऐसे । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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