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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] षड्द्रव्य-पंचास्तिकायवर्णन [. तत्र च पञ्चानामस्तिकायानां समो मध्यस्थो रागद्वेषाभ्यामनुपहतो वर्णपदवाक्य-सन्निवेशविशिष्ट: पाठो वाद: शब्दसमयः शब्दागम इति यावत्। तेषामेव मिथ्यादर्शनोदयोच्छेदे सति सम्यग्वाय: परिच्छेदो ज्ञानसमयो ज्ञानगम इति यावत्। तेषामेवाभिधानप्रत्ययपरिच्छिन्नानां वस्तुरूपेण समवायः संधातोऽर्थसमयः सर्वपदार्थसार्थ इति यावत्। तदत्र ज्ञानसमयप्रसिद्धयर्थ शब्दसमयसम्बन्धेनार्थसमय ऽभिधातुमभिप्रेतः। अथ तस्यैवार्थसमयस्य द्वैविध्यं लोकालोक-विकल्पात्। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - उनका समवाय [-पंचास्तिकायका सम्यक् बोध अथवा समूह ] [ समयः] वह समय है [इति] ऐसा [ जिनोत्तमैः प्रज्ञप्तम्] जिनवरोंने कहा है। [सः च एव लोकः भवति] वही लोक है। [ –पाँच अस्तिकायके समूह जितना ही लोक है। ]; [ तत: ] उससे आगे [ अमित: अलोक: ] अमाप अलोक [ खम् ] आकाशस्वरूप है। टीका- यहाँ [ इस गाथामें शब्दरूपसे , ज्ञानरूपसे और अर्थरूपसे [-शब्दसमय, ज्ञानसमय और अर्थसमय]- ऐसे तीन प्रकारसे 'समय' शब्दका अर्थ कहा है तथा लोक-अलोकरूप विभाग कहा है। वहाँ, [१] 'सम' अर्थात् मध्यस्थ यानी जो रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ; 'वाद' अर्थात् वर्ण [अक्षर], पद [शब्द ] और वाक्यके समूहवाला पाठ। पाँच अस्तिकायका ‘समवाद' अर्थात मध्यस्थ [ –रागद्वेषसे विकृत नहीं हुआ ] पाठ [-मौखिक या शास्त्रारूढ़ निरूपण] वह शब्दसमय है, अर्थात् शब्दागम वह शब्दसमय है। [२] मिथ्यादर्शनके उदयका नाश होने पर, उस पंचास्तिकायका ही *सम्यक् अवाय अर्थात् सम्यक् ज्ञान वह ज्ञानसमय है, अर्थात् ज्ञानागम वह ज्ञानसमय है। [३] कथनके निमित्तसे ज्ञात हुए उस पंचास्तिकायका ही वस्तुरूपसे समवाय अर्थात् समूह वह अर्थसमय है, अर्थात् सर्वपदार्थसमूह वह अर्थसमय है। उसमें यहाँ ज्ञान समयकी प्रसिद्धिके हेतु शब्दसमयके सम्बन्धसे अर्थसमयका कथन [ श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव ] करना चाहते हैं। * समवाय =[१] सम्+अवाय; सम्यक् अवाय; सम्यक् ज्ञान। [२] समूह। [ इस पंचास्तिकायसंग्रह शास्त्रमें यहाँ कालद्वव्यको-- कि जो द्रव्य होने पर भी अस्तिकाय नहीं है उसे --विवक्षामें गौण करके 'पंचास्तिकायका समवाय वह समय है।' ऐसा कहा है; इसलिये 'छह द्रव्यका समवाय वह समय है' ऐसे कथनके भावके साथ इस कथनके भावका विरोध नहीं समझना चाहिये, मात्र विवक्षाभेद है ऐसा समझना चाहिये। और इसी प्रकार अन्य स्थान पर भी विवक्षा समझकर अविरुद्ध अर्थ समझ लेना चाहिये] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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