________________
Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates
पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
शुद्ध जीवास्तिकायादि सात तत्त्व, नव पदार्थ, छह द्रव्य और पाँच अस्तिकायका संशय-विमोहविभ्रम रहित निरूपण करती है इसलिए अथवा पूर्वापरविरोधादि दोष रहित होनेसे अथवा युगपद् सर्व जीवोंको अपनी-अपनी भाषामें स्पष्ट अर्थका प्रतिपादन करती है इसलिए विशद-स्पष्ट- व्यक्त है। इसप्रकार जिनभगवानकी वाणी ही प्रमाणभूत है; एकान्तरूप अपौरुषेय वचन या विचित्र कथारूप कल्पित पुराणवचन प्रमाणभूत नहीं है। [३] तीसरे, अनन्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका जाननेवाला अनन्त केवलज्ञानगुण जिनभगवन्तोंको वर्तता है। इसप्रकार बुद्धि आदि सात ऋद्धियाँ तथा मतिज्ञानादि चतुर्विध ज्ञानसे सम्पन्न गणधरदेवादि योगन्द्रोंसे भी वे वंद्य हैं। [४] चौथे, पाँच प्रकारके संसारको जिनभगवन्तोंने जीता है। इसप्रकार कृतकृत्यपनेके कारण वे ही अन्य अकृतकृत्य जीवोंको शरणभूत है, दूसरा कोई नहीं।- इसप्रकार चार विशेषणोंसे युक्त जिनभगवन्तोंको ग्रंथके आदिमें भावनमस्कार करके मंगल किया।
प्रश्न:- जो शास्त्र स्वयं ही मंगल हैं, उसका मंगल किसलिए किया जाता है ?
उत्तर:- भक्तिके हेतुसे मंगलका भी मंगल किया जाता है। सूर्यकी दीपकसे , महासागरकी जलसे, वागीश्वरीकी [ सरस्वती] की वाणीसे और मंगलकी मंगलसे अर्चना की जाती है ।।१।।
* इस गाथाकी श्रीजयसेनाचार्यदेवकृत टीकामें, शास्त्रका मंगल शास्त्रका निमित्त, शास्त्रका हेतु [ फल ], शास्त्रका परिमाण, शास्त्रका नाम तथा शास्त्रके कर्ता- इन छह विषयोंका विस्तृत विवेचन किया है।
पुनश्च, श्री जयसेनाचार्यदेवने इस गाथाके शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ एवं भावार्थ समझाकर, 'इसप्रकार व्याख्यानकालमे सर्वत्र शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ और भावार्थ प्रयुक्त करने योग्य हैं' --- ऐसा कहा है।
Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com