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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
द्विविधं किल तात्पर्यम्-सूत्रतात्पर्य शास्त्रतात्पर्यञ्चेति। तत्र सूत्रतात्पर्य प्रतिसूत्रमेव प्रतिपादितम्। शास्त्रतात्पर्यं त्विदं प्रतिपाद्यते। अस्य खलु पारमेश्वरस्य शास्त्रस्य, सकलपुरुषार्थसारभूतमोक्षतत्त्वप्रतिपत्तिहेतोः पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यस्वरूपप्रतिपादनेनोपदर्शितसमस्तवस्तुस्वभावस्य, नवपदार्थप्रपञ्चसूचनाविष्कृतबन्धमोक्षसंबन्धिबन्धमोक्षायतनबन्धमोक्षविकल्पस्य, सम्यगावेदितनिश्चयव्यवहाररूपमोक्षमार्गस्य, साक्षन्मोक्षकारणभूतपरमवीतरागत्वविश्रान्तसमस्तहृदयस्य, परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति। तदिदं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविरोधेनैवानुगम्यमानं भवति समीहितसिद्धये
___ तात्पर्य द्विविध होता है: 'सूत्रतात्पर्य और शास्त्रतात्पर्य। उसमें, सूत्रतात्पर्य प्रत्येक सूत्रमें [प्रत्येक गाथामें ] प्रतिपादित किया गया है ; और शास्त्रतात्पर्य अब प्रतिपादित किया जाता है:
सर्व पुरुषार्थों में सारभूत ऐसे मोक्षतत्त्वका प्रतिपादन करनेके लिये जिसमें पंचास्तिकाय और षड्द्रव्यके स्वरूपके प्रतिपादन द्वारा समस्त वस्तुका स्वभाव दर्शाया गया है, नव पदार्थके विस्तृत कथन द्वारा जिसमें बन्ध-मोक्षके सम्बन्धी [ स्वामी], बन्ध-मोक्षके आयतन [ स्थान] और बन्धमोक्षके विकल्प [भेद ] प्रगट किए गए हैं, निश्चय-व्यवहाररूप मोक्षमार्गका जिसमें सम्यक् निरूपण किया गया है तथा साक्षात् मोक्षके कारणभूत परमवीतरागपनेमें जिसका समस्त हृदय स्थित है-ऐसे इस सचमुच पारमेश्वर शास्त्रका , परमार्थसे वीतरागपना ही तात्पर्य है।
सो इस वीतरागपनेका व्यवहार-निश्चयके अविरोध द्वारा ही अनुसरण किया जाए तो इष्टसिद्धि होती है, परन्तु अन्यथा नहीं [अर्थात् व्यवहार और निश्चयकी सुसंगतता रहे इस प्रकार वीतरागपनेका अनुसरण किया जाए तभी इच्छितकी सिद्धि होती है,
१। प्रत्येक गाथासूत्रका तात्पर्य सो सूत्रतात्पर्य है और सम्पूर्ण शास्त्रका तात्पर्य सो शास्त्रतात्पर्य है।
२। पुरुषार्थ = पुरुष-अर्थ; पुरुष-प्रयोजन। [ पुरुषार्थके चार विभाग किए जाते हैं: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष;
परन्तु सर्व पुरुष-अर्थोंमें मोक्ष ही सारभूत [ तात्त्विक] पुरुष-अर्थ है।]
३। पारमेश्वर = परमेश्वरके; जिनभगवानके; भागवत; दैवी; पवित्र।
४। छठवें गुणस्थानमें मुनियोग्य शुद्धपरिणतिका निरन्तर होना तथा महाव्रतादिसम्बन्धी शुभभावोंका यथायोग्यरूपसे होना वह निश्चय-व्यवहारके अविरोधका [सुमेलका] उदाहरण है। पाँचवे गुणस्थानमें उस गुणस्थानके योग्य शुद्धपरिणति निरन्तर होना तथा देशव्रतादिसम्बन्धी शुभभावोंका यथायोग्यरूपसे होना वह भी निश्चय-व्यवहारके अविरोधका उदाहरण है।
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