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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[२३७
जो चरदि णादि पेच्छदि अप्पाणं अप्पणा अणण्णमयं। सो चारित्तं णाणं दंसणमिदि णिच्छिदो होदि।। १६२।।
यश्चरति जानाति पश्यति आत्मानमात्मनानन्यमयम्। स चारित्रं ज्ञानं दर्शन मिति निश्चितो भवति।। १६२।।
आत्मनश्चारित्रज्ञानदर्शनत्वद्योतनमेतत्।
य: खल्वात्मानमात्ममयत्वादनन्यमयमात्मना चरति-स्वभावनियतास्तित्वेनानुवर्तते, आत्मना जानाति-स्वपरप्रकाशकत्वेन चेतयते, आत्मना पश्यति-याथातथ्येनावलोकयते, स खल्वात्मैव चारित्रं
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गाथा १६२
अन्वयार्थ:- [यः] जो [ आत्मा ] [अनन्यमयम् आत्मानम् ] अनन्यमय आत्माको [आत्मना] आत्मासे [ चरति आचरता है, [जानाति ] जानता है, [ पश्यति] देखता है, [ सः] वह [ आत्मा ही] [ चारित्रं ] चारित्र है, [ ज्ञानं ] ज्ञान है, [ दर्शनम् ] दर्शन है-[ इति ] ऐसा [ निश्चितः भवति] निश्चित है।
टीका:- यह, आत्माके चारित्र-ज्ञान-दर्शनपनेका प्रकाशन है [ अर्थात् आत्मा ही चारित्र, ज्ञान और दर्शन है ऐसा यहाँ समझाया है।
जो [ आत्मा] वास्तवमें आत्माको- जो कि आत्ममय होनेसे अनन्यमय है उसे-आत्मासे आचरता है अर्थात् 'स्वभावनियत अस्तित्व द्वारा अनुवर्तता है [-स्वभावनियत अस्तित्वरूपसे परिणमित होकर अनुसरता है], [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे जानता है अर्थात् स्वपरप्रकाशकरूपसे चेतता है, [अनन्यमय आत्माको ही] आत्मासे देखता है अर्थात् यथातथरूपसे
१। स्वभावनियत = स्वभावमें अवस्थित; [ज्ञानदर्शनरूप] स्वभावमें दृढ़रूपसे स्थित। ["स्वभावनियत अस्तित्व की विशेष स्पष्टताके लिए १४४ वीं गाथाकी टीका देखो।]
जाणे, जुओ ने आचरे निज आत्मने आत्मा वडे, ते जीव दर्शन, ज्ञान ने चारित्र छे निश्चितपणे। १६२।
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