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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates २३६ ] पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द तत्समाहितो भूत्वा त्यागोपादानविकल्पशून्यत्वाद्विश्रान्तभावव्यापार: सुनिःप्रकम्पः अयमात्माव-तिष्ठते, तस्मिन् तावति काले अयमेवात्मा जीवस्वभावनियतचरितत्वान्निश्चयेन मोक्षमार्ग इत्युच्यते। अतो निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गयोः साध्यसाधनभावो नितरामुपपन्न।। १६१।। उनसे समाहित होकर, त्यागग्रहणके विकल्पसे शून्यपनेके कारण [ भेदात्मक ] भावरूप व्यापार विराम प्राप्त होनेसे [अर्थात् भेदभावरूप-खंडभावरूप व्यापार रुक जानेसे ] सुनिष्कम्परूपसे रहता है, उस काल और उतने काल तक यही आत्मा जीवस्वभावमें नियत चारित्ररूप होनेके कारण निश्चयसे 'मोक्षमार्ग' कहलाता है। इसलिये, निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य-साधनपना अत्यन्त घटता है। भावार्थ:- निश्चयमोक्षमार्ग निज शुद्धात्माकी रुचि, ज्ञप्ति और निश्चळ अनुभूतिरूप है। उसका साधक [अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गका व्यवहार-साधन] ऐसा जो भेदरत्नत्रयात्मक व्यवहारमोक्षमार्ग उसे जीव कथंचित् [-किसी प्रकार, निज उद्यमसे ] अपने संवेदनमें आनेवाली अविद्याकी वासनाके विलय द्वारा प्राप्त होता हुआ, जब गुणस्थानरूप सोपानके क्रमानुसार निजशुद्धात्मद्रव्यकी भावनासे उत्पन्न नित्यानन्दलक्षणवाले सुखामृतके रसास्वादकी तृप्तिरूप परम कलाके अनुभवके कारण निजशुद्धात्माश्रित निश्चयदर्शनज्ञानचारित्ररूपसे अभेदरूप परिणमित होता है, तब निश्चयनयसे भिन्न साध्य-साधनके अभावके कारण यह आत्मा ही मोक्षमार्ग है। इसलिये ऐसा सिद्ध हुआ कि सुवर्ण और सुवर्णपाषाणकी भाँति निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य-साधकपना [ व्यवहारनयसे ] अत्यन्त घटित होता है।। १६१।। १। उनसे = स्वभावभूत सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्रसे। २। यहाँ यह ध्यानमें रखनेयोग्य है कि जीव व्यवहारमोक्षमार्गको भी अनादि अविद्याका नाश करके ही प्राप्त कर सकता है; अनादि अविद्याके नाश होनेसे पूर्व तो [अर्थात् निश्चयनयके-द्रव्यार्थिकनयके-विषयभूत शुद्धात्मस्वरूपका भान करनेसे पूर्व तो] व्यवहारमोक्षमार्ग भी नहीं होता। पुनश्च, 'निश्चयमोक्षमार्ग और व्यवहारमोक्षमार्गको साध्य-साधनपना अत्यन्त घटित होता है' ऐसा जो कहा गया है वह व्यवहारनय द्वारा किया गया उपचरित निरूपण है। उसमेंसे ऐसा अर्थ निकालना चाहिये कि 'छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुभ विकल्पोंको नहीं किन्तु छठवें गुणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिके अंशको और सातवें गणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्गको वास्तवमें साधन-साध्यपना है।' छठवें गणस्थानमें वर्तनेवाले शुद्धिक अंश बढ़कर जब और जितने काल तक उग्र शुद्धिके कारण शुभ विकल्पोंका अभाव वर्तता है तब और उतने काल तक सातवें गुणस्थानयोग्य निश्चयमोक्षमार्ग होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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