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२२४ ] पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द भावावस्थितास्तित्वरूपं परभावावस्थितास्तित्वव्यावृत्तत्वेनात्यन्तमनिन्दितं तदत्र साक्षान्मोक्षमार्गत्वेनावधारणीयमिति।।१५४।।
जीवो सहावणियदो अणियदगुणपज्जुओध परसमओ। जदि कुणदि सगं समयं पब्भस्सदि कम्मबंधादो।। १५५ ।।
जीव: स्वभावनियतः अनियतगुणपर्यायोऽथ परसमयः। यदि कुरुते स्वकं समयं प्रभ्रस्यति कर्मबन्धात्।।१५५ ।।
[ अर्थात् दो प्रकारके चारित्रमेंसे], स्वभावमें अवस्थित अस्तित्वरूप चारित्र-जो कि परभावमें अवस्थित अस्तित्वसे भिन्न होनेके कारण अत्यन्त अनिंदित है वह-यहाँ साक्षात् मोक्षमार्गरूप अवधारणा।
[ यही चारित्र ‘परमार्थ' शब्दसे वाच्य ऐसे मोक्षका कारण है, अन्य नहीं-ऐसा न जानकर, मोक्षसे भिन्न ऐसे असार संसारके कारणभत मिथ्यात्वरागादिमें लीन वर्तते हए अपना अनन्त काल गया: ऐसा जानकर उसी जीवस्वभावनियत चारित्रकी - जो कि मोक्षके कारणभूत है उसकी - निरन्तर भावना करना योग्य है। इस प्रकार सूत्रतात्पर्य है।] । १५४ ।।
गाथा १५५
अन्वयार्थ:- [ जीवः ] जीव, [ स्वभावनियतः] [ द्रव्य–अपेक्षासे] स्वभावनियत होने पर भी, [अनियतगुणपर्यायः अथ परसमयः ] यदि अनियत गुणपर्यायवाला हो तो परसमय है। [ यदि] यदि वह [ स्वकं समयं कुरुते] [नियत गुणपर्यायसे परिणमित होकर] स्वसमयको करता है तो [ कर्मबन्धात् ] कर्मबन्धसे [ प्रभ्रस्यति ] छूटता है।
निजभावनियत अनियतगुणपर्ययपणे परसमय छे; ते जो करे स्वकसमयने तो कर्मबंधनथी छूटे। १५५ ।
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