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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
-इति निर्जरापदार्थव्याख्यानं समाप्तम्।
भावार्थ:- निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारमें निश्चल परिणति वह ध्यान है। यह ध्यान मोक्षके उपायरूप है।
_जिस प्रकार थोड़ी-सी अग्नि बहुत-से घास और काष्ठकी राशिको अल्प कालमें जला देती है, उसी प्रकार मिथ्यात्व-कषायादि विभावके परित्यागस्वरूप महा पवनसे प्रज्वलित हुई और अपूर्वअद्भूत-परम-आहादात्मक सुखस्वरूप घृतसे सिंची हुई निश्चय-आत्मसंवेदनरूप ध्यानाग्नि मूलोत्तरप्रकृतिभेदवाले कर्मरूपी इन्धनकी राशिको क्षणमात्रमें जला देती है।
इस पंचमकालमें भी यथाशक्ति ध्यान हो सकता है। इस कालमें जो विच्छेद है सो शुक्लध्यानका है, धर्मध्यानका नहीं। आज भी यहाँसे जीव धर्मध्यान करके देवका भव और फिर मनुष्यका भव पाकर मोक्ष प्राप्त करते हैं। और बहश्रतधर ही ध्यान कर सकते हैं ऐसा भी नहीं है; सारभूत अल्प श्रुतसे भी ध्यान हो सकता है। इसलिये मोक्षार्थीयोंको शुद्धात्माका प्रतिपादक, सवंरनिर्जराका करनेवाला और जरामरणका हरनेवाला सारभूत उपदेश ग्रहण करके ध्यान करनेयोग्य
है।
[ यहाँ यह लक्षमें रखने योग्य है कि उपरोक्त ध्यानका मूल सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शनके बिना ध्यान नहीं होता, क्योंकि निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी [ शुद्धात्माकी ] सम्यक् प्रतीति बिना उसमें निश्चल परिणति कहाँसे होसकती है ? इसलिये मोक्षके उपायभूत ध्यान करनेकी इच्छा रखनेवाले जीवको प्रथम तो जिनोक्त द्रव्यगुणपर्यायरूप वस्तुस्वरूपकी यथार्थ समझपूर्वक निर्विकार निष्क्रिय चैतन्यचमत्कारकी सम्यक् प्रतीतिका सर्व प्रकारसे उद्यम करने योग्य है; उसके पश्चात् ही चैतन्यचमत्कारमें विशेष लीनताका यथार्थ उद्यम हो सकता है ] ।। १४६ ।।
इस प्रकार निर्जरापदार्थका व्याख्यान समाप्त हुआ।
१। दुर्मेध = अल्पबुद्धि वाले; मन्दबुद्धि; ठोट।
२। मुनिको जो शुद्धात्मस्वरूपका निश्चल उग्र आलम्बन वर्तता है उसे यहाँ मुख्यतः 'ध्यान' कहा है। | शुद्धात्मावलम्बनकी उग्रताको मुख्य न करें तो, अविरत सम्यग्दष्टिको भी 'जघन्य ध्यान' कहने में विरोध नहीं है, क्यों कि उसे भी शुद्धात्मस्वरूपका जघन्य आलम्बन तो होता है।]
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