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पंचास्तिकायसंग्रह
जस्स ण विज्जदि रागो दोसो मोहो व जोगपरिकम्मो । तस्स सुहासुहडहणो ज्ञाणमओ जायदे अगणी ।। १४६ ।।
यस्य न विद्यते रागो द्वेषो मोहो वा योगपरिकर्म । तस्य शुभाशुभदहनो ध्यानमयो जायते अग्निः।। १४६ ।।
ध्यानस्वरूपाभिधानमेतत्।
शुद्धस्वरूपेऽविचलितचैतन्यवृत्तिर्हि ध्यानम् । अथास्यात्मलाभविधिरभिधीयते। यदा खलु योगी दर्शनचारित्रमोहनीयविपाकं पुद्गलकर्मत्वात् कर्मसु संहृत्य, तदनुवृत्तेः व्यावृत्त्योपयोगममुह्यन्तमरज्यन्तमद्विषन्तं चात्यन्तशुद्ध एवात्मनि निष्कम्पं
[ भगवान श्री कुन्दकुन्द
इससे [ –इस गाथासे ] ऐसा दर्शाया कि निर्जराका मुख्य हेतु 'ध्यान है ।। १४५ ।।
गाथा १४६
अन्वयार्थ:- [ यस्य ] जिसे [ मोहः रागः द्वेषः ] मोह और रागद्वेष [ न विद्यते ] नहीं है [ वा ] तथा [ योगपरिकर्म ] योगोंका सेवन नहीं है [ अर्थात् मन-वचन-कायाके प्रति उपेक्षा है ], [ तस्य ] उसे [ शुभाशुभदहनः] शुभाशुभको जलानेवाली [ ध्यानमयः अग्निः ] ध्यानमय अग्नि [ जायते ] प्रगट होती है।
टीका :- यह, ध्यानके स्वरूपका कथन है।
शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्यपरिणति सो वास्तवमें ध्यान है । वह ध्यान प्रगट होनेकी विधि अब कही जाती है; जब वास्तवमें योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका विपाक पुद्गलकर्म होनेसे उस विपाकको [ अपनेसे भिन्न ऐसे अचेतन ] कर्मोंमें समेटकर, तदनुसार परिणतिसे उपयोगको व्यवृत्त करके [ - उस विपाकके अनुरूप परिणमनमेंसे उपयोगका निवर्तन करके ], मोही, रागी और द्वेषी न होनेवाले ऐसे उस उपयोगको अत्यन्त शुद्ध आत्मामें ही निष्कम्परूपसे लीन करता
१। यह ध्यान शुद्धभावरूप है।
नहि रागद्वेषविमोह ने नहि योगसेवन जेहने, प्रगटे शुभाशुभ बाळनारो ध्यान-अग्नि तेहने। १४६ ।
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