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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [२०९ मुख्यनिर्जराकारणोपन्यासोऽयम्। यो हि संवरेण शुभाशुभपरिणामपरमनिरोधेन युक्तः परिज्ञातवस्तुस्वरूप: परप्रयोजनेभ्यो व्यावृत्तबुद्धिः केवलं स्वप्रयोजनसाधनोद्यतमनाः आत्मानं स्वोपलम्भेनोपलभ्य गुणगुणिनोर्वस्तुत्वेनाभेदात्तदेव ज्ञानं स्वं स्वेनाविचलितमनास्संचेतयते स खलु नितान्तनिस्नेह: प्रहीणनेहाभ्यङ्गपरिष्वङ्गशुद्धस्फटिकस्तम्भवत् पूर्वोपात्तं कर्मरज: संधुनोति एतेन निर्जरामुख्यत्वे हेतुत्वं ध्यानस्य द्योतितमिति।।१४५।। ----------------------------- - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - -- - - - - - - - - - - - - - वास्तवमें आत्मार्थका प्रसाधक [ स्वप्रयोजनका प्रकृष्ट साधक ] वर्तता हुआ, [ आत्मानम् ज्ञात्वा ] आत्माको जानकर [-अनुभव करके ] [ ज्ञानं नियतं ध्यायति ] ज्ञानको निश्चलरूपसे ध्याता है, [ सः] वह [ कर्मरजः ] कर्मरजको [ संधुनोति ] खिरा देता है। टीकाः- यह, निर्जराके मुख्य कारणका कथन है। संवरसे अर्थात् शुभाशुभ परिणामके परम निरोधसे युक्त ऐसा जो जीव, वस्तुस्वरूपको [ हेयउपादेय तत्त्वको] बराबर जानता हुआ परप्रयोजनसे जिसकी बुद्धि व्यावृत्त हुई है और केवल स्वप्रयोजन साधनेमें जिसका मन 'उद्यत हुआ है ऐसा वर्तता हुआ , आत्माको स्वोपलब्धिसे उपलब्ध करके [-अपनेको स्वानुभव द्वारा अनुभव करके], गुण-गुणीका वस्तुरूपसे अभेद होनेके कारण उसी ज्ञानको-स्वको-स्व द्वारा अविचलपरिणतिवाला होकर संचेतता है, वह जीव वास्तवमें अत्यन्त 'निःस्नेह वर्तता हुआ –जिसको स्नेहके लेपका संग प्रक्षीण हुआ है ऐसे शुद्ध स्फटिकके स्तंभकी भाँति-पूर्वोपार्जित कर्मरजको खिरा देती है। १। व्यावृत्त होना = निवर्तना; निवृत्त होना; विमुख होना। २। मन = मति; बुद्धि; भाव; परिणाम। ३। उद्यत होना = तत्पर होना ; लगना; उद्यमवंत होना ; मुड़ना; ढलना। ४। गुणी और गुणमें वस्तु-अपेक्षासे अभेद है इसलिये आत्मा कहो या ज्ञान कहो-दोनों एक ही हैं। उपर जिसका 'आत्मा' शब्दसे कथन किया था उसीका यहाँ 'ज्ञान'शब्दसे कथन किया है। उस ज्ञानमें-निजात्मामेंनिजात्मा द्वारा निश्चल परिणति करके उसका संचेतन-संवेदन-अनुभवन करना सो ध्यान है। ५। निःस्नेह = स्नेह रहित; मोहरागद्वेष रहित। ६। स्नेह = तेल; चिकना पदार्थ; स्निग्धता; चिकनापन। संवर सहित, आत्मप्रयोजननो प्रसाधक आत्मने जाणी, सुनिश्चळ ज्ञान ध्यावे, ते करमरज निर्जरे। १४५। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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