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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कहानजैनशास्त्रमाला] नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन [ १९१ अथ पुण्यपापपदार्थव्याख्यानम्। मोहो रागो दोसो चित्तपसादो य जस्स भावम्मि। विज्जदि तस्स सुहो वा असुहो वा होदि परिणामो।।१३१ ।। मोहो रागो द्वेषश्चित्तप्रसादः वा यस्य भावे। विद्यते तस्य शुभो वा अशुभो वा भवति परिणामः।। १३१ ।। - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - - अब पुण्य-पापपदार्थका व्यख्यान है। गाथा १३१ अन्वयार्थ:- [ यस्य भावे ] जिसके भावमें [ मोहः ] मोह, [ रागः ] राग, [ द्वेषः ] द्वेष [ वा] अथवा [ चित्तप्रसादः ] चित्तप्रसन्नता [ विद्यते ] है, [ तस्य ] उसे [ शुभः वा अशुभः वा ] शुभ अथवा अशुभ [ परिणामः ] परिणाम [ भवति ] है। यहा ज्ञानीके विशिष्ट पुण्यको संसारविच्छेदके कारणभूत कहा वहा ऐसा समझना कि –वास्तवमें तो सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ही संसारविच्छेदके कारणभूत हैं, परन्तु जब वह सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अपूर्णदशामें होता है तब उसके साथ अनिच्छितवृत्तिसे वर्तते हुए विशिष्ट पुण्यमें संसारविच्छेदके कारणपनेका आरोप किया जाता है। वह आरोप भी वास्तविक कारणके-सम्यग्दर्शनादिके -अस्तित्वमें ही हो सकता है।] छे राग, द्वेष , विमोह, चित्तप्रसादपरिणति जेहने, ते जीवने शुभ वा अशुभ परिणामनो सद्भाव छ। १३१ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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