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कहानजैनशास्त्रमाला]
नवपदार्थपूर्वक-मोक्षमार्गप्रपंचवर्णन
[ १८५
आकाशादीनामचेतनत्वसामान्ये पुनरनुमानमेतत्।
सुखदुःखज्ञानस्य हितपरिकर्मणोऽहितभीरुत्वस्य चेति चैतन्यविशेषाणां नित्यमनुपलब्धेरविद्यमानचैतन्यसामान्या एवाकाशादयोऽजीवा इति।।१२५ ।।
गाथा १२५
अन्वयार्थ:- [सुखदुःखज्ञानं वा] सुखदुःखका ज्ञान [ हितपरिकर्म] हितका उद्यम [च] और [अहितभीरुत्वम् ] अहितका भय- [यस्य नित्यं न विद्यते ] यह जिसे सदैव नहीं होते, [ तम् ] उसे [ श्रमणाः ] श्रमण [ अजीवम् ब्रुवन्ति ] अजीव कहते हैं।
टीकाः- यह पुनश्च , आकाशादिका अचेतनत्वसामान्य निश्चित करनेके लिये अनुमान है।
आकाशादिको सुखदुःखका ज्ञान, *हितका उद्यम और अहितका भय-इन चैतन्यविशेषोंकी सदा अनुपलब्धि है [अर्थात् यह चैतन्यविशेष आकाशादिको किसी काल नहीं देखे जाते], इसलिये [ ऐसा निश्चित होता है कि ] आकाशादि अजीवोंको चैतन्यसामान्य विद्यमान नहीं है।
___ भावार्थ:- जिसे चेतनत्वसामान्य हो उसे चेतनत्वविशेष होना ही चाहिए। जिसे चेतनत्वविशेष न हो उसे चेतनत्वसामान्य भी नहीं होता। अब, आकाशादि पाँच द्रव्योंको सुखदुःखका संचेतन, हित के लिए प्रयत्न और अहितके लिए भीति-यह चेतनत्वविशेष कभी देखे नहीं जाते; इसलिये निश्चित होता है कि आकाशादिको चेतनत्वसामान्य भी नहीं है, अर्थात् अचेतनत्वसामान्य ही है।। १२५ ।।
* हित और अहितके सम्बन्धमें आचार्यवर श्री जयसेनाचार्यदेवकृत तात्पर्यवृत्ति नामक टीकामें निम्नोक्तानुसार विवरण है:
अज्ञानी जीव फूलकी माला, स्त्री, चंदनादिको तथा उनके कारणभूत दानपूजादिको हित समझते हैं और सर्प, विष, कंटकादिको अहित समझते हैं। सम्यग्ज्ञानी जीव अक्षय अनन्त सुखको त निश्चयरत्नत्रयपरिणत परमात्मद्रव्यको हित समझते हैं और आकुलताके उत्पादक ऐसे दुःखको तथा उसके कारणभूत मिथ्यात्वरागादिपरिणत आत्मद्रव्यको अहित समझते हैं।
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