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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रश्नः- व्यवहारनय परको उपदेश करने में ही कार्यकारी है या स्वयंका भी प्रयोजन साधता है ? उत्तर:- स्वयं भी जब तक निश्चयनयसे प्ररूपति वस्तुको नहीं जानता तबतक व्यवहारमार्ग द्वारा वस्तुका निश्चय करता है। इसलिये नीचली दशामें स्वयंको भी व्यवहारनय कार्यकारी है। परन्तु व्यवहारको उपचारमात्र मानकर उसके द्वारा वस्तुका श्रद्धान बराबर किया जावे तो वह कार्यकारी हो, और यदि निश्चयकी भाँति व्यवहार भी सत्यभूत मानकर वस्तु ऐसी ही है' ऐसा श्रद्धान किया जावे तो वह उल्टा अकार्यकारी हो जाये। यही पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें कहा है: अबुधस्य बोधनार्थ मुनीश्वरा देशयन्तत्यभूतार्थम्। व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति।। माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगीतसिंहस्य। व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य।। अर्थ:- मुनिराज, अज्ञानीको समझानेके लिये असत्यार्थ जो व्यवहारनय उसको उपदेश देते हैं। जो केवळ व्यवहारको ही समझाता है, उसे तो उपदेश ही देना योग्य नहीं है। जिस प्रकार जो सच्चे सिंहको न समझता उसे तो बिलाव ही सिंह है, उसी प्रकार जो निश्चयको नहीं समझता उसके तो व्यवहार ही निश्चयपनेको प्राप्त होता है। -श्री मोक्षमार्गप्रकाशक Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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