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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रश्नः- [१] व्यवहारके बिना निश्चयका उपदेश नहीं होता – वह किस प्रकार ? तथा [२] व्यवहारनयको अंगीकार नहीं करना चाहिये - वह किस प्रकार ? उत्तर:- [१] निश्चयनयसे तो आत्मा परद्रव्यसे भिन्न, स्वभावोंसे अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है। उसे जो न पहिचाने, उनसे ऐसा ही कहते रहे तो वे नहीं समझेंगे। इसलिये उन्हें समझानेके लिये व्यवहारनयसे शरीरादिक परद्रव्योंकी सापेक्षता द्वारा नर-नारक-पृथ्वीकायादिरूप जीवके भेद किये, तब ‘मनुष्य जीव है,' नारकी जीव है' इत्यादि प्रकारसे उन्हें जीवकी पहिचान हुई; अथवा अभेद वस्तुमें भेद उत्पन्न करके ज्ञान-दर्शनादि गुणपर्यायरूप जीवके भेद किये, तब ‘जाननेवाला जीव है,' 'देखनेवाला जीव है' इत्यादि प्रकारसे उन्हें जीवकी पहिचान हुई। और निश्चयसे तो वीतरागभाव मोक्षमार्ग है; किन्तु उसे जो नहीं जानते, उनसे ऐसा ही कहते रहें तो वे नहीं समझेंगे ; इसलिये उन्हें समझानेके लिये, व्यवहारनयसे तत्त्वार्थश्रद्धान ज्ञानपूर्वक परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी सापेक्षता द्वारा व्रत-शील-संयमादिरूप वीतरागभावके विशेष दर्शाये, तब उन्हें वीतरागभावकी पहिचान हुई। इसी प्रकार, अन्यत्र भी व्यवहार बिना निश्चयका उपदेश न होना समझना। [२] यहाँ व्यवहारसे नर-नारकादि पर्यायको ही जीव कहा। इसलिये कहीं उस पर्यायको ही जीव न मान लेना। पर्याय तो जीव-पुद्गलके संयोगरूप है। वहाँ निश्चयसे जीवद्रव्य प्रथक है; उसीको जीव मानना। जीवके संयोगसे शरीरादिकको भी जीव कहा वह कथनमात्र ही है। परमार्थसे शरीरादिक जीव नहीं होते। ऐसा ही श्रद्धान करना। डूसरभ, अभेद आत्मामें ज्ञान-दर्शनादि भेद किये इसलिये कहीं उन्हें भेदरूप ही न मान लेना; भेद तो समझानेके लिये है। निश्चयसे आत्मा अभेद ही है; उसीको जीववस्तु मानना। संज्ञा-संख्यादि भेद कहे वे कथनमात्र ही है ; परमाथसे वे पृथक- पृथक नहीं हैं। ऐसा ही श्रद्धान करना। पुनश्च , परद्रव्यका निमित्त मिटानेकी अपेक्षासे व्रतशील-संयमादिकको मोक्षमार्ग कहा इसलिये कहीं उन्हींको मोक्षमार्ग न मान लेना; क्योंकि परद्रव्यके ग्रहण-त्याग आत्माको हो तो आत्मा परद्रव्यका कर्ता-हर्ता हो जाये, किन्तु कोई द्रव्य किसी द्रव्यके आधीन नहीं हैं। आत्मा तो अपने भाव जो रागादिक है उन्हें छोड़कर वीतरागी होता है, इसलिये निश्चयसे वीतरागभाव ही मोक्षमार्ग है। वीतरागभावोंको और व्रतादिकको कदाचित् कार्यकारणपना है इसलिये व्रतादिकको मोक्षमार्ग कहा किन्तु वह कथनमात्र ही है। परमार्थसे बाह्यक्रिया मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा ही श्रद्धान करना। इसी प्रकार, अन्यत्र भी व्यवहारनयको अंगीकार न करनेका समझ लेना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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