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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
इन्द्रियभेदेनोक्तानां जीवानां चतुर्गतिसंबंधत्वेनोपसंहारोऽयम्।
देवगतिनाम्नो देवायुषश्चोदयाद्देवाः, ते च भवनवासिव्यंतरज्योतिष्कवैमानिकनिकाय-भेदाच्चतुर्धा। मनुष्यगतिनाम्नो मनुष्यायुषश्च उदयान्मनुष्याः। ते कर्मभोगभूमिजभेदात् वधा। तिर्यग्गतिनाम्नस्तिर्यगायुषश्च उदयात्तिर्यञ्चः। ते पृथिवीशम्बूकयूकोइंशजलचरोरगपक्षिपरिसर्पचतुष्पदादिभेदादनेकधा। नरकगतिनाम्नो नरकायुषश्च उदयान्नारकाः। ते रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभाभूमिजभेदात्सप्तधा। तत्र देवमनुष्यनारकाः पंचेन्द्रिया एव। तिर्यंचस्तु केचित्पंचेन्द्रियाः, केचिदेक-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिया अपीति।। ११८ ।।
भूमिजाः ] मनुष्य कर्मभूमिज और भोगभूमिज ऐसे दो प्रकारके हैं, [ तिर्यञ्चः बहुप्रकाराः ] तिर्यंच अनेक प्रकारके हैं [ पुनः] और [ नारकाः पृथिवीभेदगताः ] नारकोंके भेद उनकी पृथ्वियोंके भेद जितने हैं।
टीका:- यह, इन्द्रियोंके भेदकी अपेक्षासे कहे गये जीवोंका चतुर्गतिसम्बन्ध दर्शाते हुए उपसंहार है [ अर्थात् यहाँ एकेन्द्रिय-द्वीन्द्रियादिरूप जीवभेदोंका चार गतिके साथ सम्बन्ध दर्शाकर जीवभेदों उपसंहार किया गया है।
देवगतिनाम और देवायुके उदयसे [अर्थात् देवगतिनामकर्म और देवायुकर्मके उदयके निमित्तसे] देव होते हैं; वे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ऐसे निकायभेदोंके कारण चार प्रकारके हैं। मनुष्यगतिनाम और मनुष्यायुके उदयसे मनुष्य होते हैं; वे कर्मभूमिज और भोगभूमिज ऐसे भेदोंके कारण दो प्रकारके हैं। तिर्यंचगतिनाम और तिर्यंचायुके उदयसे तिर्यंच होते हैं; वे पृथ्वी, शंबूक, जूं, डाँस , जलचर, उरग, पक्षी, परिसर्प, चतुष्पाद [ चौपाये ] इत्यादि भेदोंके कारण अनेक प्रकारके हैं। नरकगतिनाम और नरकायुके उदयसे नारक होते हैं; वे रत्नप्रभाभूमिज, शर्कराप्रभाभूमिज, बालुकाप्रभाभूमिज, पंकप्रभाभूमिज, धूमप्रभाभूमिज, तमःप्रभाभूमिज और महातमःप्रभाभूमिज ऐसे भेदोंके कारण सात प्रकारके हैं।
उनमें, देव , मनुष्य और नारकी पंचेन्द्रिय ही होते हैं। तिर्यंच तो कतिपय
१। निकाय = समूह
२। रत्नप्रभाभूमिज = रत्नप्रभा नामकी भूमिमें [-प्रथम नरकमें ] उत्पन्न ।
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