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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
उद्दसमसयमक्खियमधुकरिभमरा पयंगमादीया। रूवं रसं च गंधं फासं पुण ते विजाणंति।।११६ ।।
उद्देशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः पतङ्गाद्याः। रूपं रसं च गंधं स्पर्श पूनस्ते विजानन्ति।। ११६ ।।
चतुरिन्द्रियप्रकारसूचनेयम्।
एते स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुरिन्द्रियावरणक्षयोपशमात् श्रोत्रेन्द्रियावरणोदये नोइन्द्रिया-वरणोदये च सति स्पर्शरसगंधवर्णानां परिच्छेत्तारश्चतुरिन्द्रिया अमनसो भवंतीति।। ११६ ।।
सुरणरणारयतिरिया वण्णरसप्फासगंधसद्दण्हू। जलचरथलचरखचरा बलिया पंचेंदिया जीवा।।११७।।
गाथा ११६
अन्वयार्थ:- [पुनः] पुनश्च [उद्देशमशकमक्षिकामधुकरीभ्रमराः] डाँस, मच्छर, मक्खी, मधुमक्खी , भँवरा और [ पतङ्गाद्याः ते] पतंगे आदि जीव [ रूपं] रूप, [ रसं] रस, [ गंधं ] गन्ध [च ] और [ स्पर्शं ] स्पर्शको [ विजानन्ति ] जानते हैं। [ वे चतुरिन्द्रिय जीव हैं।]
टीका:- यह, चतुरिन्द्रिय जीवोंके प्रकारकी सूचना है।
स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रियके आवरणके क्षयोपशमके कारण तथा श्रोत्रेन्द्रियके आवरणका उदय तथा मनके आवरणका उदय होनेसे स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णको जाननेवाले यह [ डॉस आदि ] जीव मनरहित चतुरिन्द्रिय जीव हैं।। ११६ ।।
मधमाख, भ्रमर, पतंग, माखी, डांस, मच्छर आदि जे, ते जीव जाणे स्पर्शने, रस, गंध तेम ज रूपने। ११६ । स्पर्शादि पंचक जाणतां तिर्यंच-नारक-सुर-नरो । -जळचर, भूचर के खेचरो-बळवान पंचेंद्रिय जीवो। ११७।
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