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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचास्तिकायसंग्रह [भगवानश्रीकुन्दकुन्द कालस्य द्रव्यास्तिकायत्वविधिप्रतिषेधविधानमेतत्। यथा खलु जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानि सकलद्रव्यलक्षणसद्भावाव्यव्यपदेशभाञ्जि भवन्ति, तथा कालोऽपि। इत्येवं षड्द्रव्याणि। किंतु यथा जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशानां व्यादिप्रदेशलक्षणत्वमस्ति अस्तिकायत्वं, न तथा लोकाकाशप्रदेशसंख्यानामपि कालाणूनामेक-प्रदेशत्वादस्त्यस्तिकायत्वम्। अत एव च पञ्चास्तिकायप्रकरणे न हीह मुख्यत्वेनोपन्यस्तः कालः। जीवपुद्गलपरिणामावच्छिद्यमानपर्यायत्वेन तत्परिणामान्यथानुपपत्यानुमीयमानद्रव्यत्वेनात्रैवांतर्भावितः।। १०२।। -इति कालद्रव्यव्याख्यानं समाप्तम्। - - - - - - - -- ___टीका:- यह, कालको द्रव्यपनेके विधानका और अस्तिकायपनेके निषेधका कथन है [अर्थात् कालको द्रव्यपना है किन्तु अस्तिकायपना नहीं है ऐसा यहाँ कहा है। जिस प्रकार वास्तवमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको द्रव्यके समस्त लक्षणोंका सद्भाव होनेसे वे 'द्रव्य' संज्ञाको प्राप्त करते हैं, उसी प्रकार काल भी [ उसे द्रव्यके समस्त लक्षणोंका सद्भाव होनेसे ] 'द्रव्य' संज्ञाको प्राप्त करता है। इस प्रकार छह द्रव्य हैं। किन्तु जिस प्रकार जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाशको 'द्वि-आदि प्रदेश जिसका लक्षण है ऐसा अस्तिकायपना है, उस प्रकार कालाणुओंको- यद्यपि उनकी संख्या लोकाकाशके प्रदेशों जितनी [ असंख्य ] है तथापि – एकप्रदेशीपनेके कारण अस्तिकायपना नहीं है। और ऐसा होनेसे ही [अर्थात् काल अस्तिकाय न होनेसे ही] यहाँ पंचास्तिकायके प्रकरणमें मुख्यरूपसे कालका कथन नहीं किया गया है; [ परन्तु] जीव-पुद्गलोंके परिणाम द्वारा जो ज्ञात होती है – मापी जाती है ऐसी उसकी पर्याय होनेसे तथा जीव-पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है ऐसा वह द्रव्य होनेसे उसे यहाँ अन्तर्भूत किया गया है।। १०२ ।। इस प्रकार कालद्रव्यका व्याख्यान समाप्त हुआ। १। द्वि-आदि-दो या अधिक; दो से लेकर अनन्त तक। २। अन्तर्भूत करना भीतर समा लेना; समाविष्ट करना; समावेश करना [इस ‘पंचास्तिकायसंग्रह नामक शास्त्रमें कालका मुख्यरूपसे वर्णन नहीं है, पाँच अस्तिकायोंका मुख्यरूपसे वर्णन है। वहाँ जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकायके परिणामोंका वर्णन करते हुए, उन परिणामों द्वारा जिसके परिणाम ज्ञात होते है- मापे जाते हैं उस पदार्थका [ कालका] तथा उन परिणामोंकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा जिसका अनुमान होता है उस पदार्थका [ कालका ] गौणरूपसे वर्णन करना उचित है - ऐसा मानकर यहाँ पंचास्तिकायप्रकरणमें गौणरूपसे कालके वर्णनका समावेश किया गया है।] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008395
Book TitlePunchaastikaai Sangrah
Original Sutra AuthorKundkundacharya
Author
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year2008
Total Pages293
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size3 MB
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