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पंचास्तिकायसंग्रह
[भगवानश्रीकुन्दकुन्द
कालसंभूत इत्यभिधीयते। तत्रेदं तात्पर्यं-व्यवहारकालो जीवपुद्गलपरिणामेन निश्चीयते, निश्चयकालस्तु तत्परिणामान्यथानुपपत्त्येति। तत्र क्षणभङ्गी व्यवहारकाल: सूक्ष्मपर्यायस्य तावन्मात्रत्वात्, नित्यो निश्चयकालः खगुणपर्यायाधारद्रव्यत्वेन सर्वदैवाविनश्वरत्वादिति।। १००।।
कालो त्ति य ववदेसो सब्भावपरुवगो हवदि णिच्चो। उप्पण्णप्पद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई।। १०१।।
काल इति च व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः। उत्पन्नप्रध्वंस्यपरो दीर्धांतरस्थायी।। १०१।।
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निश्चित होता है; और निश्चयकाल जीव-पुद्गलोंके परिणामकी अन्यथा अनुपपत्ति द्वारा [अर्थात् जीव-पुद्गलोंके परिणाम अन्य प्रकारसे नहीं बन सकते इसलिये] निश्चित होता है।
वहाँ, व्यवहारकाल क्षणभंगी है, क्योंकि सूक्ष्म पर्याय मात्र उतनी ही [ –क्षणमात्र जितनी ही, समयमात्र जितनी ही ] है; निश्चयकाल नित्य है, क्योंकि वह अपने गुण-पर्यायोंके आधारभूत द्रव्यरूपसे सदैव अविनाशी है।। १०० ।।
गाथा १०१
अन्वयार्थ:- [ कालः इति च व्यपदेशः ] 'काल' ऐसा व्यपदेश [ सद्गावप्ररूपक: ] सद्भावका प्ररूपक है इसलिये [ नित्यः भवति ] काल [ निश्चयकाल ] नित्य है। [ उत्पन्नध्वंसी अपरः] उत्पन्नध्वंसी ऐसा जो दूसरा काल [अर्थात् उत्पन्न होते ही नष्ट होनेवाला जो व्यवहारकाल] वह [ दीर्धांतरस्थायी] [ क्षणिक होने पर भी प्रवाहअपेक्षासे ] दीर्ध स्थितिका भी [ कहा जाता] है।
* क्षणभंगी प्रति क्षण नष्ट होनेवाला; प्रतिसमय जिसका ध्वंस होता है ऐसा; क्षणभंगुर; क्षणिक।
छे'काळ' संज्ञा सत्प्ररूपक तेथी काळ सुनित्य छे; उत्पन्नध्वंसी अन्य जे ते दीर्धस्थायी पण ठरे। १०१।
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